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नवमः
२५६ श्लोकार्थ – ग्यारह अङ्गों के जानकार होकर और वैसे ही सोलहकारण
भावनाओं को भाकर उन मुनिराज ने उत्कृष्ट तीर्थकर
नामक पुण्य को बाँध लिया। संन्यासविधिना चान्ते तनुं त्यक्त्वा तपोज्ज्वलः ।
स्वर्गे हि पञ्चदशमे मुनिः प्रापाहमिन्द्रताम् ।।११।। अन्वयार्थ – च = और, तपोज्ज्वलः = तप से उज्ज्वल कीर्ति वाले, मुनिः
= उन मुनिराज ने, अन्ते = आयु के अन्त में, सन्यासविधिना = सन्यासमरण की विधि से, तj - शरीर को, त्यक्त्वा = छोड़कर, पञ्चदशमे =पन्द्रहवें, स्वर्गे = स्वर्ग में, हि = ही,
अहमिन्द्रतां = अहमिन्द्रत्व को, प्राप = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ – तथा तपश्चरण से उज्ज्वल कीर्ति वाले उन मुनिराज ने आयु
के अन्त में संन्यासमरण पूर्वक शरीर छोड़ दिया और पन्द्रहवें
स्वर्ग में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। सिन्धुविंशतिकामुश्च सार्वत्रिकरदेहभृत् । शुक्ललेश्यायुतः श्रीमान् तेजसार्क इबोज्ज्वलः ।।१२।। सहस्रविंशतिमितवर्षोपरि स मानसम् ।
आदादाहारममलं स्वानन्दोद्भवतोषभृत् ।।१३।। अन्वयार्थ – श्रीमान् = श्री सम्पन्न अर्थात् कान्तिमान्, सिन्धुविंशतिकायुः
= बीस सागर की आयु वाला, सार्धत्रिकरदेहभृत् = साढ़े तीन हाथ देह वाला, शुक्ललेश्याथुतः = शुक्ललेश्या वाला, तेजसार्क इव - तेज से सूर्य के समान, उज्ज्वलः = उज्ज्वल अर्थात् जाज्वल्यमान्, च = और, स्वानन्दोद्भवतोषभृत् = निजानन्द से ,उत्पन्न संतोष से पूर्ण, सः = वह अहमिन्द्र, सहसविंशतिमितवर्षोपरि = बीस हजार परिमित वर्ष ऊपर होने अर्थात् निकल जाने पर, मानसं = मनोभव अमृत स्वरूप, अमलं : निर्मल, आहारं = भोजन को, आदात् =
लेता था। श्लोकार्थ – श्रीसम्पन्न अर्थात् कान्तिमान बीस सागर की आयु वाला, साढ़े
तीन हाथ ऊँची देह वाला, शुक्ललेश्या वाला, तेज की अपेक्षा