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नवमः
२५७ महादानानि सर्वेभ्य याचकेभ्यः समर्पयत् ।
चाशेषराज्यसौख्यानि बुभुजे नीतितो नृपः ।।४।। अन्वयार्थ – नृपः = राजा ने, सर्वेश्यः = सभी, याचकेभ्यः = याचकों के
लिये, महादानानि = दान स्वरूप महान वस्तुयें, समर्पयत् = देता था, च = और, अशेषराज्यसौख्यानि = सम्पूर्ण राज्य
सुखों को, नीतितः = नीति न्याय से, बुभोज = भोगा। श्लोकार्थ - राजा ने सभी याचकों के लिये विपुल दान दिया तथा
नीतिपूर्वक सम्पूर्ण राज्य का पालन किया और सुख भोगा। एकदा धर्मशेषाख्यं मनोहरवने मुनिम् । श्रुत्वागतं दर्शनार्थं तस्य भूपोऽचलन्मुदा।।५।। त्रिः परिक्रम्य तं तत्र गत्वा नत्या मुहुर्मुहुः ।
पादौ गृहीत्या पपृच्छ यतिधर्मान् सनातनान् ।।६।। अन्वयार्थ - एकदा = एक दिन, मनोहरवने = मोहर वन में, धर्मशेषाख्यं
= धर्मशेष नामक, मुनि - मुनि को, आगतं = आया हुआ, श्रुत्वा = सुनकर, तस्य = उनके, दर्शनार्थ = दर्शन के लिये, भूपः = राजा, मुदा :: प्रसन्नता से, अचलत् = चला. तत्र = वहाँ, गत्वा = जाकर, तं = उन मुनि को, मुह: मुहः = बार-बार, नत्वा = नमस्कार करके, त्रिः = तीन, परिक्रम्य = परिक्रमा करके, (च = और), पादौ = दोनों चरणों को, गृहीत्वा = पकडकर, सनातनान = अनादिनिधन, यतिधर्मान
= मुनिधर्मों को, पपृच्छ = पूछा। श्लोकार्थ – एक दिन राजा महापद्म “मनोहर वन में धर्मशेष नामक
मुनिराज आये हैं" - ऐसा सुनकर प्रसन्नता से उनके दर्शन करने के लिये, चल दिया, वहाँ जाकर उसने उन मुनि को बार-बार नमस्कार करके उनकी तीन परिक्रमा करके और उनके दोनों चरण पकड़कर अनादिनिधन मुनि के धर्मों को
पूछा। मुनिस्त्रायोदशविधं चारित्रं स्वागमोदितम् । श्रावयामास भूपाय प्रबृद्धस्तन्निषम्य सः ।।७।।