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________________ अष्ट्रमः २५५ = प्राप्त हुये, ललितवरामिधानं = ललित इस श्रेष्ठ नाम वाली, तत् = उस. कूटं = कूट की, (अहं = मैं). ईडे = स्तुति करता यः = जो, अखिलः = सर्व, हि : ही. भव्यः = भव्य जीव, ललितकूटवरस्य = श्रेष्ठ ललितकूट की, सत्कथा = सच्ची कथा को, भक्त्या- भक्ति से, श्रद्धान्वितः = श्रद्धास्पद होता हुआ, शृणुयात् = सुने, सः = वह, चित्तेप्सितं = मनोभिलषित, यत् = जो, (अस्ति = है). (तत् = उसको), अत्र = इस, क्षितितले - पृथ्वी पर, सद्यः = शीघ्र, लभेत = प्राप्त करे, (च :: और) पश्चात् = बाद में, विरक्तहृदयः = वैराग्यसम्पन्न हुआ, भवतः = संसार से, विमुञ्चेत् = विमुक्त हो जावे। श्लोकार्थ – अपने आत्म तत्त्व का बोध उदित हो जाने से अपने-अपने क्रमानुसार लगातार मुक्ति पाने वाले भव्य मुनिराजों के साथ जिस ललितकूट से श्री चन्द्रप्रभ स्वामी ने परमसिद्धि अर्थात् निर्वाणदशा को प्राप्त किया उस श्रेष्ठ ललित पाट की मैं सुति करता हूं। जो कोई भी, सभी ही भव्य जीव श्रेष्ठ ललितकूट की इस सत्कथा को भक्ति से श्रद्धापूर्वक सुनता है वह अपनी मनोवांछित वस्तु को इस पृथ्वी पर शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है तथा बाद में वैराग्य सम्पन्न होकर संसार से मुक्त हो जाता है। {इति दीक्षितदेवदत्तकृते सम्मेदगिरिमाहात्म्ये, तीर्थङ्कर __ चन्द्रप्रभवृतान्तपुरस्सरं घटान्तललितकूटवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः समाप्तः।} इस प्रकार दीक्षितो देवदत्तरचित सम्मेदशिखर माहात्म्य नामक काव्य में तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के वृतान्त को प्रस्तुत कर घटान्त ललितकूट का वर्णन करने वाला आठवां अध्याय समाप्त हुआ।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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