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________________ २५४ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ - उस ललितकूट की वन्दना करने से नरक और तिर्यञ्चगति से रहित होकर भव्यजीव सोलह प्रोषधोपवास व्रतों का फल निश्चित ही प्राप्त करे । अवाप्यते फलं चेत्थमेककूटस्य वन्दनात् । सर्वप्रणामजं विन्द्यात्फलं श्रीजिन एव हि ।। ६० ।। = अन्वयार्थ एककूटस्य एक ललितकूट की वन्दनात् = वन्दना से, इत्थं = ऐसा या इतना, फलं = फल, अवाप्यते = प्राप्त किया जाता है, सर्वप्रणामजं सारी कूटों को प्रणाम करने से उत्पन्न, फलं = फल को, श्रीजिनः = श्री जिनेन्द्र भगवान्, एव = ही विन्द्यात् = जाने । = । श्लोकार्थ - जब एक कूट की वन्दना से इतना फल प्राप्त किया जाता है तो सभी कूटों की वन्दना से उत्पन्न होने वाला फल तो श्री जिनेन्द्र भगवान् ही जानें हम असमर्थों की क्या गिनती है । श्रीचन्द्रप्रभ उदितात्मतत्त्वबोधात्संसिद्धिं — किल परमां गतो हि यस्मात् । सतत समर्जितप्रयातैः यो भव्यैः तत्कूट यत्सत्कथां ललितकूटवरस्य भक्त्या, श्रद्धान्वितोऽत्र शृणुयादखिलो हि भव्यः । चित्तेप्सितं क्षितितले स लभेत सद्य: पश्चाद्विरक्तहृदयो भवतो विमुञ्चेत् ॥ ८२ ॥ अन्वयार्थ किल = निश्चित ही, उदितात्मतत्त्वबोधात् = आत्म तत्त्व का बोध उदित हो जाने से सततसमर्जितप्रयातैः = निरन्तर अर्थात् अपने अपने क्रम से लगातार प्राप्त की है मुक्ति जिन्होंने ऐसे भव्यैः = भव्य मुनिराजों के (सह = साथ). यस्मात् = जिस ललितकूट से श्रीचन्द्रप्रभः श्री चन्द्रप्रभ भगवान्, परमां = उत्कृष्ट, संसिद्धिं = सिद्धदशा को गतः = ललितवराभिधानमीडे । ८१ ।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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