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अष्ट्रमः
२५१ को, गतः = गये हुये, सः = वह, जातरूपः = यथाजात नग्न स्वरूप वाले मुनि, अभवत् = हो गये, सः = उन्होंने, ध्यानबलात = ध्यान के बल से, कैवल्य - केवलज्ञान और
निर्वाण को, आप = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ – तभी राज्य का पालन करते हुये उन अजितराज राजा ने अपने
पुत्र को योग्य और चतुर जानकर अपना वह राज्य उसके लिये दे दिया वन में चले गये वहाँ यथा जात नग्न स्वरूप वाले मुनिराज हो गये। ध्यान के बल से उन्होंने केवलज्ञान
प्राप्त किया और मोक्ष चले गये।। एकस्मिन्समये सोऽपि राजा ललितदत्तकः ।
सम्प्राप्तश्चारणान्साधन परिपूज्येदमबतीत ! ०१!! अन्ययार्थ – एकस्मिन्समये = एक समय, स: = उस, ललिदत्तकः =
ललितदत्त नामक, राजा = राजा ने, चारणान् = चारण ऋद्धिधारी, साधून = मुनियों को, सम्प्राप्तः = प्राप्त किया. (च = और). परिपूज्य = उनको पूजकर, इदं = यह, अब्रवीत्
= बोला। श्लोकार्थ – एक समय उस ललितदत्त नामक राजा ने चारण ऋद्धिधारी
साधुओं को प्राप्त किया और उनको पूजकर यह बोला। चारणद्धिप्रलाभोऽत्र कथं स्यान्मुनिसत्तम ।
मुनिनोयत्तं तदा भूप शृणु तद्वृत्तमुत्तमम् ।।७२।। अन्वयार्थ – मुनिसत्तम = हे मुनि श्रेष्ठ, अत्र = यहाँ, चारणद्धिप्रलाभः :
चारण ऋद्धि का लाभ, कथं = कैसे, स्यात् = हो, तदा = तब, मुनिना = मुनि महाराज द्वारा, उक्तं = कहा गया, भूप = हे राजन!, उत्तम = श्रेष्ठ, तद्वतं = उस ऋद्धि के वृतान्त
को, शृणु = सुनो। श्लोकार्थ – हे मुनिश्रेष्ठ! इस मनुष्य भव में चारण ऋद्धि की प्राप्ति कैसे
हो – ऐसा राजा द्वारा पूछने पर मुनि ने कहा हे राजन! तुम उसका सुन्दर वृतान्त सुनो।