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________________ अष्टमः २४६ एकदा स वनं यातो महासेनः प्रतापवान्। मुनिं ददर्श तत्रासौ तापसं निर्मलप्रभम् ।।६४।। तं पृष्ट्या च प्रणम्याध विरक्तःस्थीयराज्यतः । दीक्षां जग्राह धर्मात्मा तपश्चक्रे स निर्मलम् ।।५।। अन्वयार्थ – एकदा = एक दिन, सः = वह, प्रतापवान् = प्रतापी राजा. महासेनः = महासेन, वनं = वन को, यातः = गया था. तत्र = वहाँ, असौ = उसने, निर्मलप्रभ = निमल प्रभा धाल, तापसं = तपस्वी, मुनिं = मुनिराज को, ददर्श = देखा, तं = उन मुनिराज को, प्रणम्य = नमस्कार करके, च = और, पृष्ट्वा = पूँछकर, स्वीयराज्यतः = अपने राज्य से, विरक्तः = विरक्त हुये उस, धर्मात्मा = धर्मात्मा ने, दीक्षां = जैनेश्वरी दीक्षा को, जग्राह = ग्रहण कर लिया, अथ = और, निर्मलं = मल रहित अर्थात् निर्दोष, तपः = तपश्चरण. चक्रे = किया। श्लोकार्थ – एक बार वह प्रतापी महासेन वन में गया वहाँ उसने निर्मल स्वच्छ कान्ति वाले तपस्वी मुनिवर्य को देखा उन्हें प्रणाम करके और पूंछकर वह धर्मात्मा राजा अपने राज्य से विरक्त हो गया और उसने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली तथा निर्दोष तपश्चरण किया । देहान्ते पञ्चमे स्वर्गे देवोभूत्स तपोबलात् । बुभोज देवसौख्यं स देवस्त्रीनेत्रमोदकः ।।६६ ।। अन्वयार्थ – देहान्ते = देह का अंत अर्थात् मरण होने पर, सः = वह मुनिराज, तपोबलात् = तपबल से, पञ्चमे = पाँचवें, स्वर्ग = स्वर्ग में, देवः = देव, अभूत् = हुआ, देवस्त्रीनेत्रमोदक: - देवस्त्रियों अर्थात् देवाङ्गनाओं के नेत्रों को प्रसन्न करने वाले. सः = उस देव ने, देवसौख्यं = देवोचित सुख को, बुमोज - भोगा। श्लोकार्थ - मरण हो जाने पर वह मुनिराज तप के बल से पंचम स्वर्ग में देव हुये वहाँ उस देव ने देवाङ्गनाओं को प्रसन्न करते हुये देवत्व सुख को भोगा।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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