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अष्टमा
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सम्पन्न उन मुनिराज ने किसी अन्य दिन आहार के लिये आहार हेतु नलिन पुर में भ्रमण किया। वहाँ राजा सोमदत्त ने भक्ति से उन मुनिराज की पूजा करके उन्हें शुद्ध आहार दिया और पांच आश्चर्यों को देखा। मौनव्रत लेकर मुनिराज
पुनः वन में चले गये और पंच महाव्रतों का पालन करने लगे। संधृत्य पञ्चसमिती: गुप्तित्रितयमीश्वरः । त्रयोदशाविधं भूटः चारित मापुर गात् ।।५।। ततः स्वथित्ते संधार्य शुक्लध्यानं चतुर्विधम् ।
कृष्णफाल्गुनसप्तम्यां पञ्चमं ज्ञानमाप सः ।।५३।। अन्वयार्थ – सः = उन, ईश्वरः = मुनिराज ने, पञ्चसमिती: = पाँच
समितियों, (च - और) गुप्तित्रितयं = तीन गुप्तियों को, संधृत्य = धारण करके, त्रयोदशविध = तेरह प्रकार का. भूयः = प्रचुर, चारित्रं = समुपागमत् = प्राप्त कर लिया, ततः = उससे आगे. चतुर्विधं = चार प्रकार का. शुक्लध्यानं = शुक्लध्यान को, स्वचित्ते = अपने मन में, संधार्य = धारण करके, सः = उन्होंने, कृष्ाफालानसप्तम्यां = फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन, पञ्चमं = पाँचवें, ज्ञानम् = केवलज्ञान को,
आप = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ – उन मुनिराज ने पाँच समितियों और तीन गुप्तियों को धारण
करके तेरह प्रकार के चारित्र को प्रचुरता से प्राप्त कर लिया तथा उससे भी आगे पुरुषार्थ करते चार प्रकार के शुक्लध्यान अपने मन में धारण करके फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन पाँचवें ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। ततः शक्राज्ञया देवनिर्मिते परमाद्भुते।
गतो समवसारेऽसौ व्यराजत् रविर्यथा ।।५४।। अन्वयार्थ – ततः = उसके बाद, शक्राज्ञया = इन्द्र की आज्ञा से,
देवनिर्मिते = देवों द्वारा बनाये गये. परमाद्भुते = परमआश्चर्यकारी, समवसारे = समवसरण में, गतः = स्थित. असौ = वह भगवान्, (तथा = वैसे), व्यराजत = सुशोभित