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अष्टमः
२४३ = राजा, खात् = आकाश से, उल्कापातं = तारे को गिरता हुआ, आलोक्य = देखकर, तत्क्षणात् = उसी समय, विरक्त:
- विरक्त, अभूत = हो गया। श्लोकार्थ – किसी दिन महल पर चढ़कर सुख से बैठा हुआ वह राजा
आकाश में उल्कापात अर्थात् गिरते हुये तारे को देखकर उसी
समय विरक्त हो गया। ब्रह्मर्षिभिस्तदैवेत्या वन्दितस्संस्तुतः प्रभुः ।
राज्यं श्रीवरचन्द्राय सुपुत्राय समापर्यत् ||४६।। अन्वयार्थ - तदैव = उसी समय अर्थात् राजा के विरक्त हो जाने पर ही,
ब्रह्मर्षिभिः = ब्रह्मर्षि नामक लौकान्तिक देवों द्वारा, वन्दितः = नमस्कार किये जाते हुये, (च = और), संस्तुतः = स्तुति किये जाते हुये, प्रभुः = राजा ने, इत्वा = जाकर, सुपुत्राय = सुपुत्र, श्रीवरचन्द्राय = श्रीवर चन्द्र के लिये, राज्यं = राज्य,
समापर्यत् = समर्पित कर दिया। श्लोकार्थ – उसी समय अर्थात राजा के विरक्त हो जाने पर ही ब्रह्मर्षि
नामक लौकान्तिक देवों द्वारा नमस्कार किये जाते हुये और स्तुति किये जाते हुये, प्रभुः = राजा ने सुपुत्र श्रीवर चन्द्र के लिये राज्य समर्पित कर दिया। देवोपनीतां शिविकामरूध्य सुरसुन्दरीम् ।
देवैरूढो वनं गत्या विधिवद्दीक्षितोऽभयत् ।।४७ ।। अन्वयार्थ – देवोपनीता = देवों द्वारा लायी गयी, सुरसुन्दरी = सुरसुन्दरी
नामक, शिबिकां = शिविका पर, आरुह्य = चढ़कर, देवैः = देवों द्वारा, ऊदः = वहन किया जाता अर्थात ले जाता हुआ, वनं = वन को. गत्वा = जाकर, विधिवत् = विधिपूर्वक.
दीक्षितः = दीक्षित. अभवत् = हो गया। श्लोकार्थ – देवों द्वारा लायी गयी सुरसुन्दरी नामक शिबिका पर चढ़कर
दैवों द्वारा ले जाता हुआ, वन को जाकर विधिपूर्वक दीक्षित हो गया।