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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अन्वयार्थ - यन्त्र = जहाँ, ईश्वरोदयः - भगवान् का जन्म, अभूत् = हुआ
था. तत्रैव = वहीं, पुनः = फिर से, आगत्य = आकर, दिव्यवस्त्राभरणैः :: देवोपनीत वस्त्र और, आभूषणों से. तं = उसको, संपूज्य = पूजकर, भूपाङ्गणे - राजा के आंगन में, तदग्रे - उनके सामने, महादभुतं = अत्यधिक आश्चर्यकारी, साङ्गहारं = अङ्गहार अर्थात् हाव विलास सहित. ताण्डवं :: ताण्डव नृत्य, कृत्वा = करके, देवस्य = भगवान् का, चन्द्रप्रभेति = चन्द्रप्रम ऐसा, नाम = नाम, उच्चार्य = कहकर, प्रसन्नधी: = प्रसन्नचित्त बुद्धिमान, असौ = वह, देवेशः = तीर्थङ्कर, प्रभु = चन्द्रप्रभ को, लक्ष्मणाङ्क = लक्ष्मणा रानी की गोद में संस्थाप्य = स्थापित करके. मुहुः = बार – बार, प्रणम्य - प्रणाम करके देवतैः = देवताओं के, सह = साथ,
सुरालयं = स्वर्ग को, अगात् = चला गया। श्लोकार्थ – जहाँ भगवान् का जन्म हुआ था वहीं फिर से आकर दिव्य
वस्त्रों और आभरणों से उनको पूजकर राजा के आँगन में उनके सामने अत्यधिक आश्चर्यकारी हावविलासपूर्ण ताण्डव नृत्य करके और भगवान् का चन्द्रप्रभ नामकरण करके प्रसन्नबुद्धि वाला वह देवेश प्रभु को प्रेम से माता लक्ष्मणा की गोद में स्थापित करके और बार-बार उन्हें प्रणाम करके
देवताओं के साथ स्वर्ग चला गया। चन्द्रं स्वकान्त्या निर्जित्य देवोऽयं चन्द्रलाञ्छनः ।
जगत्तापहरो भूत्वा दिदीपे राजवेश्मनि।।३८।। अन्ययार्थ - चन्द्रलाञ्छनः = चन्द्रमा के चिन्ह से लांछित, अयं = यह,
देवः = तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ, स्वकान्त्या = अपनी कान्ति से. चन्द्रं = चन्द्रमा को, निर्जित्य = जीतकर, जगत्तापहरः = जगत् का ताप हरने वाले, भूत्वा = होकर, राजवेश्मनि =
राजमहल में, दिदीप = चमके अर्थात् सुशोभित हुये। श्लोकार्थ – चन्द्रमा के चिन्ह से चिन्हित यह देव तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ अपनी
कान्ति से चन्द्रमा को जीतकर जगत् का ताप हरने वाले होकर राजमहल में सुशोभित हुये।