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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अन्वयार्थ – एवं = इस प्रकार स्वप्नों को, विलोक्य = देखकर, प्रबुद्धा
= जागी हुयी, सा = वह रानी, पत्युः = पति के, अन्तिकं = पास, गता = गयी, अथ = फिर, तस्मात् = पति से, स्वप्नफलं = स्वप्नों का फल, श्रुत्वा = सुनकर, मानसे - मन
में, अतीव = अत्यधिक जहर्ष = प्रसन्न हुई। श्लोकार्थ – इस प्रकार स्वजों को देखकर जागी हुई वह रानी राजा के
पास गयी तथा राजा से स्वप्नों का फल जानकर-सुनकर
मन में अत्यंत प्रसन्न हुई। धृत्वा गर्भेऽहमिन्द्रं सा रराज विशदद्युतिः ।
राकेव निता व्योलि सादी निशीपाला 1३१|| अन्वयार्थ – विशदद्युतिः = निर्मल कान्ति सम्पन्न, गर्भ = गर्भ में, अहमिन्द्रं
= अहमिन्द्र को, धृत्वा = धारण कर, गर्भिता = गर्ग युक्त, सा = वह रानी, व्योम्नि = आकाश में, शारदीयनिशोज्ज्वला = शरत्काल की रात्रियों में चमकती-दमकती स्वच्छ, राकेव
= पूर्णिमा की रात्रि के समान, रराज = सुशोभित हुई। श्लोकार्थ – अपने गर्भ में अहमिन्द्र को धारण कर गर्मयुक्त हुयी निर्मल
कान्ति से सम्पन्न वह रानी उसी प्रकार सुशोभित हुई जैसे आकाश में शरत्काल की रात्रियों में पूर्णतः चमकती-दमकती पूर्ण स्वच्छ पूर्णिमा की रात्रि सुशोभित होती है। सहस्यशुक्लैकादश्यां सुषुवे पुत्रमुत्तमम् ।
सा देव्यथ त्रिलोकीशं मतिश्रुत्यवधीश्वरम् ।।३२।। अन्वयार्थ – सा = उस, देवी = रानी ने, सहस्यशुक्लैकादश्यां =
पौषशुक्ला ग्यारस के दिन, मतिश्रुत्यवधीश्वरं = मति-श्रुत और अवधिज्ञान के स्वामी, उत्तम = उत्तम. त्रिलोकीशं = तीन
लोक के प्रभु तीर्थङ्कर, पुत्रं = पुत्र को, सुषुवे = जन्म दिया । __श्लोकार्थ – उस रानी ने पौष शुक्ला ग्यारस के दिन मति, श्रुत और
अवधिज्ञान स्वामी, उत्तम, त्रिलोकीनाथ तीर्थङ्कर पुत्र को उत्पन्न किया।