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अष्टमः
२३५.
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अन्वयार्थ – सः = उन मुनिराज ने अन्त्ये = अंतिम समय में, सन्यासविधिना = सन्यास मरण के विधान से, हि शरीर का त्याग, विधाय करके, च = और, सर्वार्थसिद्धिविमाने - सर्वार्थसिद्धि के विमान में, अहमिन्द्रतां
ही
तनुत्यागं
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• अहमिन्द्रत्व को प्राप प्राप्त किया, अयं
= यह (अगले
श्लोक से इसका सम्बन्ध है) ।
श्लोकार्थ
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•उन मुनिराज ने अंतिम समय में सन्यास मरण विधि से ही शरीर का त्याग करके सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया ।
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त्रित्रिंशत्सागरमायुश्च प्राप्य हि तत्पदोचितम् । सर्व विधाय सिद्धानां स्मरणे तत्परोऽभवत् ||२२|| अहमिन्द्रसुखं दीर्घ भुञ्जानोऽसौ प्रतिक्षणम् । अभूत् षण्मासशिष्टायुः महानिर्मलकान्तिभृत् ।। २३ ।। अन्वयार्थ ( अयं = यह अहमिन्द्र देव ), त्रित्रिंशत्सागरं = तेतीस सागर, आयुः = आयु को प्राप्य = प्राप्तकर, च और, तत्पदोचितं - अहमिन्द्र पद के योग्य, सर्व सभी कार्य, विधाय = करके, सिद्धानां = सिद्ध भगवन्तों के, स्मरणे = स्मरण में, तत्परः = तत्पर अर्थात् उद्यत, अभवत् = हो गया।
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महानिर्मलकान्तिभृत् = महान् स्वच्छधवल कान्ति वाला, असौ = वह देव, प्रतिक्षणं = एक-एक क्षण करके, दीर्घं लम्बे काल तक, अहमिन्द्रसुखं अहमिन्द्र के सुख को भुञ्जानः = भोगता हुआ, षण्मासशिष्टायुः छह माह की शेष आयु वाला, अभूत हो गया । श्लोकार्थ यह अहमिन्द्र देव तेतीस सागर की आयु प्राप्त करके और अपने पद के योग्य सभी कार्य करके सिद्ध भगवन्तों के स्मरण में तत्पर अर्थात् उद्यत हो गया।
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विपुलधवल कान्ति से सम्पन्न वह देव एक-एक क्षण करके दीर्घकाल तक अहमिन्द्र के सुखों को भोगता हुआ छह माह की शेष आयु वाला हो गया ।