SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = सुवर्णनाभ के लिये, राज्यं = राज्य, समर्प्य = समर्पित करके अर्थात् देकर, बहुभिः = अनेक, भूमिपैः = राजाओं के, सार्ध = साथ, जैनी = जितेन्द्रियता की, दीक्षा = दीक्षा को, समग्रहीत् = ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ – विरक्त हुये उस राजा ने अपने पुत्र सुवर्णनाभ के लिये राज्य देकर अनेक राजाओं के साथ जितेन्द्रिय साधना वाली जैनेश् नि दीस, प्रह. काही श्रुत्वैकादशसङ्ख्यानि तत्राङ्गानि स भावनाः । भावयित्वा षोडशान्तश्च बबंध किल तीर्थकृत् ।।१६।। अन्वयार्थ – तत्र = मुनि दशा में, सः = उन्होंने, एकादशसङ्ख्यानि = ग्यारह, अङ्गानि = अङ्गों को, श्रुत्वा = सुनकर, च = और.. षोडश = सोलह, भावनाः = भावनाओं को, अन्तः = मन में, भावयित्वा = भाकर के, किल = निश्चित रूप से, तीर्थकृत - तीर्थकर नाम कर्म को, बबंध = बांधा। श्लोकार्थ – उस मुनिदशा में उन मुनिराज ने ग्यारह अङगों को सुनकर सोलह कारण भावानाओं को मन में भाकर निश्चित ही तीर्थकर प्रकृति को बाँध लिया। उत्तमानि षट्पञ्चाशन्मितानि च ब्रतानि वै । जैनान्यादाय विपिने तप उग्रं धकार सः ।।२०।। अन्वयार्थ . सः = उन मुनिराज ने, मितानि = मर्यादित, च -- और. उत्तमानि = उत्तम, षट्पञ्चाशत् = छप्पन, जैनानि = जितेन्द्रिय साधना विषयक. व्रतानि = व्रतों को, आदाय = ग्रहण कर, विपिने = वन में, उग्रं = उत्कृष्ट या कठिनतम, तपः = तपश्चरण को. चकार = किया। श्लोकार्थ – उन मुनिराज ने मर्यादित और सर्वोत्तम जितेन्द्रिय साधना विषयक छप्पन व्रतों को लेकर वन में उत्कृष्ट या कठिनतम तपश्चरण किया। अन्त्ये सन्यासविधिना हि तनुत्यागं विधाय सः । सर्वार्थसिद्धिविमाने च प्रापायमहमिन्द्रताम् ।।२१।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy