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सप्तमः
રસ अन्वयार्थ – यस्मात् = जिस, कूटात् = कूट से, श्रीसुपार्श्वः = श्री
सपार्श्वनाथ, महेश:= तीर्थङ्कर परमात्मा ने, योगिरीत्या - योगी को पद्धति से सिद्धिस्थानं = सिद्धपद अर्थात् निर्वाण, प्राप्तवान् = प्राप्त किया, वन्दकानां = वन्दना करने वालों के लिये, भुक्तिं = भुक्ति को, (च = और) मुक्तिं = मुक्ति को, ददातु - देते. अहं :- में कवि) - लस, सभासं = प्रभासकूट को, नित्यं = हमेशा. प्रेम्णा = भक्ति से, नमामि
= नमस्कार करता हूं। श्लोकार्थ – जिस कूट से श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर ने योगी की रीति से
मुक्तिस्थान अर्थात् सिद्ध पद प्राप्त किया था वह प्रभास कूट चन्दना करने वाले सभी यात्रियों को मुक्ति और मुक्ति प्रदान करे । मैं उस प्रभास कूट को नित्य ही भक्ति सहित नमस्कार करता हूं। इति दीक्षितदेवदत्तकृते सम्मेदशिखरमाहात्म्ये श्रीसुपार्श्वतीर्थकरस्य वृतान्तपुरस्सरं प्रभासकूट
वर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः समाप्तः। (इस प्रकार दीक्षितदेवदत्त रचित सम्मेदशिखर माहात्म्य नामक काव्य में श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थङ्कर का वृतान्त बताकर प्रभास कूट का वर्णन करने वाला सांतवा अध्याय समाप्त हुआ।