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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ – उन्हीं मुनिवर के साथ सोलह लाख मुनिराज केवलज्ञान से
युक्त बुध अर्थात् पूर्व ज्ञानी परमात्मा हुये इसी प्रभास कूट
से मुक्ति को प्राप्त हुये। फलं प्रभासकूटस्य चन्दनादतुलं स्मृतम् ।
सर्वकूटनमस्कर्तुः फलं वक्त्तुं क ईश्वरः ।।१०।। अन्वयार्थ – प्रभासकूटस्य = प्रभासकूट की, वन्दनात् = वन्दना करने से,
अतुलं = अनुपम, फलं = फल, स्मृतम् = स्मरण किया जाता है! साटनका . सीटों को नमस्कार करने वाले के. फलं = फल को, कः = कौन, वक्तुं = कहने के लिये,
ईश्वरः = समर्थ. (अस्ति = है)। श्लोकार्थ – जब प्रभावकूट की वन्दना करने से होने वाला फल अतुल
होता है – ऐसा ज्ञानियों ने याद रखकर कहा है। तब सभी कुटों को नमस्कार करने वाले के फल को कहने में कौन
समर्थ हो सकता है अर्थात् कोई नहीं। द्वात्रिंशत्कोटिसंख्यातप्रोषधनतर्ज फलम् ।
नरः प्राप्नोत्यनायासात् सम्मेदाचलयन्दनात् |१०१।। अन्वयार्थ – 'गरः = मनुष्य, सम्मेदाचलवन्दनात् - सम्मेदशिखर पर्वत की
वन्दना से, अनायासात् = अकस्मात् विना प्रयास से ही, द्वात्रिंशत्कोटिसंख्यातप्रोषधव्रतजं = बत्तीस करोड़ प्रोषधोपवास व्रत से उत्पन्न, फलं = फल को, प्राप्नोति = प्राप्त करता
श्लोकार्थ – कवि कहता है कि सम्मेदशिखर की वन्दना का इतना महत्त्व
है कि उसकी वन्दना करने वाले मनुष्य को बत्तीस करोड़ प्रोषधोपवास से प्राप्त होने वाले फल के समान फल मिलता
है।
यस्मात्कूटाच्छीसुपायो
महेश: सिद्धिस्थान प्राप्तवान् योगिरीत्या । भुक्तिं मुक्तिं वन्दकानां ददातु
प्रेम्णा नित्यं तं प्रभासं नमामि ||१०२।।