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सप्तमः
२२३ को, धिक्कृत्वा = धिक्कार करके, कृताञ्जलिः = विनम्रता से हाथ जोड़े हुये, हि = ही, भूपः - राजा ने, तं = उन, परमं
= परम, मुनिं = मुनिराज को, पुनः = फिर से, उवाच = कहा। श्लोकार्थ – मुनिराज के वचन निश्चित रूप से सही है ऐसा निर्णय करके
और अपने आपको धिक् अर्थात् धिक्कार करके विनम्रता से
हाथ जोड़े हुये वह राजा उन परम मुनिराज से पुनः बोला। मुनिवर्याधुना मे तमुपायं दर्शय सत्त्वरम् ।
केनाहं कुष्ठतो नाथ! भुक्तस्रयां दुःखसागरात् ।।६१।। अन्वयार्थ -- मुनिवर्य = हे मुगिराज, अधुना = सब. सत्वरम् = जल्दी ही,
मे = मुझे, तम् = उस, उपायं = उपाय को, दर्शय = दिखाओ, गाथ! :- हे स्वामिन!. के किस उपाय से, अहं = मैं, कुष्ठतः = कुष्ठ रोग रूप, दुःखसागरात = दुःख के सागर से, मुक्तः
= मुक्त, स्याम् = होऊँ या होऊँगा। श्लोकार्थ – हे मुनिवर्य! अब मुझे जल्दी ही उस उपाय को बताओ। है
स्वाभी! किस उपाय से मैं कोढ रोग रूप दुःख के सागर से
छुटकारा पाऊँगा। मुनिनोक्तं तदा भूप! भूत्वा त्वं मेचकाम्बरः ।
सम्मेदभूमिभृद्यात्रां कुरू रोगापनुत्तये ।।१२।। अन्वयार्थ – तदा = तब, मुनिना = मुनिराज द्वारा, उक्तं = कहा गया,
भूप = हे राजन्!, रोगापनुत्तये = रोग दूर करने के लिये, त्वं = तुम. मेचकाम्बरः = पंचरंगी वस्त्र धारण करने वाले. (भूत्वा = होकर), सम्मेदभूमिभृद्यात्रा = सम्मेदशिखर नामक
पर्वत की यात्रा को, कुरू = करो। श्लोकार्थ – तब मुनिराज ने कहा – हे राजन! तुम अपना रोग मिटाने
के लिये पंचरंगी वस्त्र पहिन कर सम्मेदशिखर की यात्रा करो। तच्छुत्या हर्षपूर्णोऽसौ सङ्घन सहितो गतः । यथा शिखरिणो यात्रा तत्र गत्वा सुभावकः ।।६३।। गिरेः प्रभासकूटं तमभिवन्ध जिनेश्वरम् । अष्टधा पूजया पूज्यं प्रपूज्य गदशान्तये ।।६४।।