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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य को सुनकर अपनी निंदा की तथा बार-बार पश्चात्ताप करके
दुर्गति में अर्थात् तिर्यञ्च गति में जाकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। पश्चात्तापजपुण्येन भूप उद्योतकाभिधः ।
सत्यमेवात्र सञ्जातो विद्धयेतन्निश्चयान्नृप ।।८८|| अन्वयार्थ - भूप! = राजन!, पश्चात्तापजपुण्येन - पश्चात्ताप की भावना
से जनित प्राप्त पुण्य द्वारा. (त्वं = तुम), अत्र = यहाँ, उद्योतकाभिधः = उद्योतक नाम वाले, सः = वह, त्वं = तुम, एच = ही, सञ्जातः = हुये हो, नृप = हे राजन!. त्वम् =
तुम, एतत् = यह, विद्धि = जानो। श्लोकार्थ – हे राजन! पश्चात्ताप की भावना से जनित पुण्य द्वारा तुम यहाँ
उद्योतक नाम वाले जीव हुये हो। हे राजन! तुम यह निश्चित
ही जान लो। मुनीनाभृतौ कुष्ठं प्रोक्तस्त्वं कुष्ठरोगभाक् ।
चिन्तां त्यज कृतं कर्मावश्यं भोक्तव्यमेव भो! ||८६।। अन्वयार्थ - मुनीनां = मुनिराजों की, आभृतौ = आभृति करने अर्थात्
आहारदान से भरण करने पर, कुष्ठं = कोढ, प्रोक्तः = कहने वाले, त्वं = तुम, कुष्ठरोगभाक् = कोढ़रोग के पात्र हुये हो; चिन्तां = चिन्ता को, त्यज = छोड़ो, भो! = अरे!, कृतं = किये गये, कर्म = कर्म, अवश्यमेव = अवश्य ही, भोक्तव्यम
= भोगने योग्य (भवति = होता है)। श्लोकार्थ -- मुनिराजों को आहार देने पर कोढ़ होता है ऐसा कहने वाले
होने से तुम अभी कोढ़ रोग से ग्रसित हुये हो । अब चिन्ता छोड़ो, अरे राजन! किया हुआ कर्म तो अवश्य ही भोगा जाने
योग्य होता है। कृत्यात्मानं च धिक्कृत्वा मुनेर्वाक्यं सुनिश्चितम् ।
कृताञ्जलिः पुनर्भूपो हि तमुवाच परमं मुनिम् ।।६।। अन्वयार्थ – मुनेः = मुनिराज के. वाक्यं = वचनों को, सुनिश्चितम् =
सुनिश्चित, कृत्वा = करके, च = और, आत्मानं = अपने आप