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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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श्लोकार्थ – एक दिन अरिजय और मित्रञ्जय नामक दो चारणऋद्धि धारी मुनिराजों को आते हुये देखकर प्रिया सहित वह राजा उनकी और दौड़ा और पवित्र मन से उत्साहित होकर उसने उन मुनिराजों की तीन परिक्रमायें करके उन्हें प्रणाम किया तब उन दोनों करुणावन्त मुनिराजों ने उसे देखकर पूछा हे राजन् ! तुम अपनी इस विशेष दशा को हमारे सामने कहो । मुनिराज की इस बात को सुनकर तह राजा अश्रुजलपूरित नेत्रों वाला हो गया और उन दोनों मुनिराज से बोला । श्रूयतां मुनिशार्दूल! मया किं पूर्वजन्मनि । कृतं कलुषमत्युग्रं येनाहं कुष्ठरोगभाक् ।। ७७ ।। अन्वयार्थ – मुनिशार्दूल! = हे मुनिश्रेष्ठ! श्रूयताम् = सुनिये पूर्वजन्मनि पूर्वजन्म में मया = मेरे द्वारा, किं कोई, अत्युग्रं अत्यधिक प्रचंड उग्र, कलुषम् = अशुभकर्म कृतं = किया गया, येन जिस कारण से, अहं मैं, कुष्ठरोगभाक् = कोढ़
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रोग का भाजन, (अभूत् = हुआ ) ।
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श्लोकार्थ ... हे मुनिश्रेष्ठ! सुनिये पूर्वजन्म में मैंने कोई ऐसा अत्यधिक उग्र-- कष्टकारक अशुभ कर्म किया जिसके कारण मैं आज कोढ़ रोग से ग्रसित हुआ हूं।
तच्छ्रुत्वा तं मुनिः प्राह श्रृणु पूर्वं भवं नृप । अस्मिन्नेव पुरे पूर्व सोमदत्ताभिधो द्विजः । ७८ ।। अभूद्वै पण्डितो दीर्घविद्यागर्वितमानसः । मुनिं कञ्चिदपि प्रेक्ष्य नमस्कारं स न व्यधात् ।। ७६ ।। अन्वयार्थ – तच्छ्रुत्वा = उसकी बात सुनकर मुनिः = मुनिराज, तं = उससे, प्राह = बोले, नृप राजन् पूर्वं पूर्व भवं भव को, श्रृणु = सुनो, अस्मिन्
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इस एव
ही पुरे नगर
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में, पूर्व = पहिले, सोमदत्तामिधः = सोमदत्त नामक, द्विजः
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एक ब्राह्मण, अभूत्
हुआ था, वै
= निश्चय ही,
दीर्घविद्यागर्वितमानसः दीर्घ काल से विद्याओं के अभिमान
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