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की सम्मेदशिखर माहात्म्य
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तस्यामुद्योतको राजा सर्वशास्त्रविशारदः । राशी पतिव्रता नाम्नी सुशीला तस्य चाभवत् । ७० ।। अन्वयार्थ तस्याम् = उस कौशाम्बी नगरी में सर्वशास्त्रविशारदः समी शास्त्रों में पारंगत, राजा = नृप, उद्योतकः = उद्योतक, ( आसीत् = था), तस्य उस राजा की पतिव्रता पतिव्रत का पालन करने वाली, सुशीला - सुशीला, नाम्नी = नाम की. राज्ञी रानी, अभवत् = थी| श्लोकार्थ उस कौशाम्बी नगरी में उद्योतक नामक राजा सर्वशास्त्रों में
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निपुण था उसकी सुशीला नामक एक पतिव्रत का पालन करने वाली रानी थी।
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श्लोकार्थ
केनापि कर्मणा चैव तस्य पूर्वा र्जितेन वै । कुष्ठोत्पत्तिरभूद्देहे सन्तप्तस्तेन सोऽभवत् । ।७१।।
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अन्ययार्थ – पूर्वार्जितेन = पूर्व में संचित, केनापि = किसी भी, कर्मणा = कर्म के कारण, वै निश्चय, एव ही, तस्य = उस राजा के कुष्ठोत्पत्तिः कुष्ठरोग, अभूत् = हो गया था। च = और, तेन उस कारण, सः वह राजा, सन्तप्तः- संतप्त, अभवत् हो गया | उस राजा के शरीर में किसी भी पूर्व संचित कर्मोदय के कारण कोढ़ रोग हो गया जिससे वह राजा निश्चय ही सन्ताप को
प्राप्त हुआ ।
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सुदुःखितेन मनसा नानासौख्यरसान्वितम् । राज्यं विहाय राजाऽसौ वनवासं चकार तत् ।। ७२ ।। अन्वयार्थ - सुदुःखितेन अच्छी तरह से दुःखित, मनसा मन से, असौ = उस, राजा = राजा ने, नानासौख्यरसान्वितम् अनेक सुखों से आप्लावित - भरपूर, तत् = उस, राज्यं = राज्य को, विहाय = छोड़कर, वनवासं = वन में वास, चकार = किया।
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लोकार्थ अच्छी तरह से दुःखित मन से उस राजा ने अनेक सुखों से
भरपूर उस राज्य को छोड़कर वन में वास किया। सापि पतिव्रता देवी गत्त्वा तदनु काननम् । पतिशुश्रूषणं भक्त्या चकार हृदि दुःखिता ।। ७३ ।।