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सप्तमः
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तस्याश्शुभाङ्गणे श्रीमद्देयागमबुधेन हि । आज्ञप्तो देवराजेन धनेशोऽम्यरमध्यगः ।।२२।। मेघयद् बहुधा रत्नवृष्टिं पाण्मासिी तदा ।
प्रसन्नमनसा चक्रे यक्षवृन्दसमन्वितः ।।२३।। अन्वयार्थ – तदा = तभी, तस्याः = उस रानी के, शुभाङ्गणे = सुन्दर
आङगन में, हि = ही, श्रीमद्देवागमबुधेन = श्री सम्पन्न देव का आगमन होगा यह जानने वाले, देवराजेन = इन्द्र से, आज्ञप्तः = आज्ञा प्राप्त किये हुये, अम्बरमध्यगः = आकाश में गमन करते हुये, यक्षवृन्दसमन्वितः = यक्षों के समूह से संयुक्त. धनेशः = धनेश-कुबेर ने, प्रसन्नमनसा = प्रसन्न मन से, मेघवद् = पत्रों द्वारा हुई वर्मा के पास बहुधः = अनेक प्रकार से, पाण्मासिकी = छह माह तक, रत्नवृष्टिं = रत्नों
की वर्षा, चक्रे = की। श्लोकार्थ – तभी, उस पृथिवीर्षणा रानी के शुभ-सुन्दर आंगन में ही
कान्तिमान् श्री सम्पन्न देव का जन्म होगा यह जानने वाले इन्द्र से आज्ञा प्राप्त किये हुये कुबेर ने आकाश में गमन करते हुर्य यक्षवृन्दों से युक्त होकर छह माह तक वैसे ही रत्नों की
वर्षा की जैसे मेघ जल बरसाते हैं। वैशाखशुक्लषष्ट्यां सा विशाखायां सुवेश्मनि ।
रात्री सुप्ता प्रभाते लान् स्वप्नान् षोडश चैक्षत ।।२४।। अन्वयार्थ – वैशाखशुक्लषष्ठ्यां = बैसाख शुक्ल षष्ठी के दिन, विशाखायां
= विशाखा नक्षत्र में, सा = उस रानी ने, सुवेश्मनि = सुन्दर भवन में, सुप्ता = सोती हुई, रात्रौ = रात्रि में, प्रभाते = प्रभातवेला में, तान् = उन, षोडश - सोलह, स्वप्नान् = स्वप्नों
को, ऐक्षत = देखा। श्लोकार्थ – बैसाख सुदी षष्ठी के दिन विशाखा नक्षत्र में उस रानी ने
रात्रि को अपने महल में सोते हुये प्रभात बेला में सोलह स्वप्नों को देखा।