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स्वप्नान्ते स्वमुखाम्भोजे प्रविष्टं मत्तवारणम् । हृष्टा देवी प्रबुद्धेयं महाविस्मयमाययौ ।।२५।।
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स्वप्न देखने के अन्तिम समय में.
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अन्वयार्थ - च = और, स्वप्नान्ते स्वमुखाम्भोजे = अपने मुखरूप कमल में प्रविष्टं प्रवेश करते हुये मत्तवारणं एक मदोन्मत हाथी को (ऐक्षत = देखा), प्रबुद्धा जागी हुई (च = और), हृष्टा हर्षित होती हुई, इयं यह देवी रानी, महाविस्मयं = महान् आश्चर्य को, आययौ = प्राप्त हो गयी।
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श्लोकार्थ
अन्वयार्थ
श्लोकार्थ
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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तदैव सान्तिकं भर्तुः गता भर्त्रानुमोदिता । तस्मै ज्ञानादितः स्वप्नान् श्रावयामास हर्षिता ||२६|| तदैव = तब ही भर्तुः = स्वामी के सान्तिकं = निकट, = गयी, (च = और) भर्त्रा = स्वामी द्वारा अनुमोदिता अनुमोदित की गयी. सा उस रानी ने हर्षिता = हर्ष सहित, तस्मै = राजा के लिये, आदितः शुरु से, तान् स्वप्नान् = स्वप्नों को, श्रावयामास तब ही वह रानी पति के पास गई और पति द्वारा आने की अनुमोदना की जाती हुई उसने हर्षित होकर शुरु से उन स्वप्नों को राजा को सुना दिया।
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= उन,
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सुना दिया
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तथा स्वप्न देखने के अन्तिम समय में उस रानी ने अपने मुख रूपी कमल में एक मदोन्मत्त हाथी को प्रविष्ट होते हुये देखा । जागने के बाद हर्षित हुई यह रानी महान् आश्चर्य को प्राप्त हुई ।
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तत्फलं श्रोतुकामां तामुवाच धरणीपतिः । देवि त्वद्गर्भगो देवो देवेन्द्रैरपि वन्दितः ।। २७ ।। ते शुभावसरे साक्षात् रक्षन्ति श्रीनिकेतनम् । इति श्रुत्वा तदा राज्ञी परमानन्दमाप सा ।। २८ ।।
गला
अन्वयार्थ - धरणीपतिः राजा तत्फलं स्वप्नों के फल को, श्रोतुकामां
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सुनने की कामना वाली, तां = उस रानी को, उवाच बोला, देवि = हे रानी! त्वद्गर्भगः = तुम्हारे गर्भ में आया
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