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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य जम्बूनाम्नि तदा द्वीपे भरसे चार्यखण्डके।
काशीदेशे सुनगरी याराणस्याभिधा स्मृता ।।१६।। अन्वयार्थ । तदा = तब, उस समय. जम्बूनाम्नि = जम्धूनामक, द्वीपे =
द्वीप में, भरते = भरतक्षेत्र में, आर्यखण्डके = आर्यखण्ड में, च = और, काशीदेशे = काशी देश में, वाराणसी = बनारस, आभिधा = नाम की, सुनगरी = सुन्दर नगरी. स्मृता =
बुधजनों द्वारा याद की गयी थी। श्लोकार्थ – उस समय जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित आर्यखण्ड के काशी
देश में वाराणसी नाम की एक सुन्दर नगरी बुधजनों द्वारा याद की जाती थी। स्वविभूत्या हसन्तीव भूमिगापि सुरालयम् ।
स्मानियाकुमो च गोरकाश्यप उत्तमे ||२०|| सुप्रतिष्ठोऽभवदाजा तेजस्वी भव्यसागरः ।
तद्राज्ञी पृथिवीषेणा सती सा धर्मशालिनी ।।२१।। अन्वयार्थ – (सा = वह नगरी), भूमिगापि = भूमि पर स्थित होकर भी,
स्वविभूत्या = अपनी विभूति से, हसन्ती = हंसती हुई. इव = मानो, सुरालयं - स्वर्ग. (स्यात् = हो), तस्यां = उस नगरी में, इक्ष्वाकुवंशे = इक्ष्वाकु वंश में, च = और, उत्तमे = गोत्रकाश्यपे = काश्यपगोत्र में, तेजस्वी = परा- ..., भत्यसागर: == भव्यसागर, सुप्रतिष्ठः = सुप्रतिष्ठ नामक, राजा = एक राजा, अभवत् = हुआ था, तद्राज्ञी = उसकी रानी, पृथिवीषेणा = पृथिवीषेणा (आसीत् = थी). सा = वह, सती = पतिव्रता, धर्मशालिनी = धर्म पालन में चतुर अर्थ धर्मवृत्ति
परायणा. (आसीत् = थी)। श्लोकार्थ – वह वाराणसी नामक नगरी भूमि पर स्थित हुई भी अपने वैभव
के कारण हँसती हुई मानों स्वर्ग ही थी। उसमें इक्ष्वाकुवंश में और काश्यपगोत्र में, एक भव्य व पराक्रमी राजा सुप्रतिष्ठ हुआ था। उसकी एक धर्मपरायणा एवं पतिव्रता रानी पृथिवीषेणा थी।