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________________ १६६ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य भक्तः श्रीवीतरागस्य गुणविक्रमसागरः । बुद्धिमान् ! साहसी धीर: साहिता बन्धुभिः स्थः ।।७।। राज्यं बुभोज धर्मेण धर्मतः पालयन्महीम् । पोषयन्नर्थिकेदारानखण्डैर्दानवारिभिः ।।८।। अन्वयार्थ – परोपकारी = परोपकार करने वाला, परमोदयः = पुण्य के उदय से युक्त, सम्यक्त्वसंयुतः = सम्यक्त्व से संयुक्त, नृपः = राजा ने. सततं = निरन्तर, स्वीयाः = अपनी, प्रजाः = प्रजा की, पुत्रानिव ... पुत्रों के समान, ररक्ष = रक्षा की। धर्मतः = धर्म से, महीम् = पृथ्वी को, पालयन = पालता हुआ, अखण्डैः = खण्ड रहित सतत, दानवारिभिः = दान रूपी जल से, अर्थिकेदारान् = प्रार्थी जनों के खेतों को पोषते हुये, गुणविक्रमसागरः = गुणों और पराक्रम का स्वामी, श्रीवीतरागस्य = वीतराग भगवान् जिनेन्द्र का, भक्तः = भक्त, बुद्धिमान् = विवेकी ज्ञानवान्, साहसी = साहस के कार्य करने वाला, धीर: = वीर, स्वकैः = अपने, बन्धुभिः = भाई आदि परिवार जतों से. सहितः = सहित, (असौ = उस राजा ने), धर्मेण = धर्ममार्ग से, राज्यं = राज्य का, बुभोज = पालन किया। श्लोकार्थ – परोपकारी, पुण्यशाली और सम्यग्दृष्टि राजा ने हमेशा ही अपनी प्रजा की रक्षा पुत्रों के समान की। धर्म से पृथ्वी का पालन करते हुये, निरन्तर अखण्डपने दान रूप वारि द्वारा प्रार्थियों के खेतों को पोषित करते हुये गुणों और पराक्रम के स्वामी, वीतराग जिनेन्द्र के भक्त, बुद्धिमान, साहसी, पीर और अपने बन्धुजनों से सहित उस राजा ने धर्ममार्ग से राज्य का पालन किया। एकदा सौधगो भूपः सुखासीनो यियत्पथे । विचित्ररङ्गजीभूतान् दृष्ट्या मोदमवाप सः ||६|| अन्वयार्थ – एकदा = एक बार, सौधगः = महल में स्थित, सुखासीनः = सुख से बैठे हुये, सः = उस, भूपः = राजा ने, वियत्पथे = आकाशमार्ग में, विचित्ररङ्गजीभूतान = विचित्र रंगों वाले मेघों को, दृष्ट्वा = देखकर, मोदम् = हर्ष या प्रसन्नता को, अवाप = प्राप्त किया।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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