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सप्तमः
१६७ श्लोकार्थ - एक बार महल में सुख से बैठे हुये उस राजा ने आकाशमार्ग
में विचित्र रंगों के बादलों को देखकर आनन्द प्राप्त किया। दृष्टा एवं विनष्टास्त एतदद्भुसमयेक्ष्य सः ।
बुद्ध्या सारं हि संसारं विरक्तोऽभून्महीपतिः ।।१०।। अन्वयार्थ – ते = वे मेघ, दृष्टा एव = देखे जाते हुये ही, विनष्टाः = विनाश
को प्राप्त हो गये, एतत् = इस, अद्भुतं = आश्चर्य को, अवेक्ष्य = देखकर, सः = वह, महीपतिः = राजा, संसारं = संसार को, असारं = सारहीन, हि = ही, बुद्ध्वा = जानकर, विरक्तः
- विरक्त, अभूत = हो गया। श्लोकार्थ – चे मेघ देखे जाते हुये ही विनष्ट हो गये इस आश्चर्य को
देखकर तथा संसार को असारमूत ही जानकर वह राजा
वैराग्य को प्राप्त हो गया। सुखेनात्मसुतायाथ राज्यं दत्वा तदेव हि ।
निर्वाणोद्यमसंयुक्तः तत्क्षणं स यनं ययौ ।।११।। अन्वयार्थ – अथ == इसके बाद, तदैव = उसी समय, सः = वह राजा,
सुखेन = सुखपूर्वक, आत्मसुताय - अपने पुत्र के लिये, राज्यं = राज्य, दत्वा = देकर, निर्वाणोद्यमसंयुक्तः = मोक्ष के पुरुषार्थ से जुड़कर. तत्क्षणं = जल्दी, हि = ही, वनं = वन
को, ययौ = चला गया। श्लोकार्थ – विरक्त होने के बाद वह राजा उसी समय सुखपूर्वक अपने
बेटे को राज्य देकर तथा मोक्ष पाने के उद्यम से संयुक्त होता
हुआ शीघ्र ही वन में चला गया। तत्रार्हन्नन्दनमुनि नत्वा तन्निकटादसौ । दीक्षां जग्राह जैनेश्वरी दशैकाङ्गधरो मुनिः ।।१२।। सम्भाव्य कारणान्युच्चैः, षोडशोक्तानि धैर्यतः ।
तीर्थङ्करो बभूवायं परमं तप आचरन् ।।१३।। अन्वयार्थ – तत्र = वन में, अर्हन्नन्दनमुनि = अर्हन्नन्दन मुनि को, नत्वा
= नमस्कार करके, तन्निकटात् = उनके पास से, असौ = उस राजा ने, जैनेश्वरी = जितेन्द्रिय ऐश्वर्य से सम्पन्न, दीक्षां