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षष्ठः अन्वयार्थ - (यदा = जब), भव्यैः = भव्य जीवों द्वारा, धर्मोपदेशाय = धर्म
का उपदेश समझने के लिये, भगवान् = भगवान्, सम्पृष्टः = पूछे गये. तदा = तब. सर्वधर्मोपदेशाढ्यं = सभी धर्मों के उपदेश से समृद्ध, सतिमिरामह - सारे पदार्थों के सम्बन्ध में वर्तमान अज्ञान को नाश करने वाली. सर्वतत्त्वप्रकाशकम् = सारे तत्त्वों का प्रकाशन करने वाली, दिव्यनिर्घोषं = दिव्यध्वनि को, उच्चरन् - उच्चरित करते हुये, द्वात्रिंशदुक्तसहस्रपुण्यदेशेषु = बत्तीस हजार पुण्य देशों में, विहरन् = विहार करते हुये, भव्यान = भव्यजीवों को, प्रतिबोधयन् = प्रतिबोधित करते अर्थात् समझाते हुये. मासमात्राशिष्टायुः = मात्र एक मास अवशिष्ट आयु वाले, असौ = वह, देवराट् = देवाधिदेव तीर्थकर, पद्मप्रभुः = पद्मप्रभु. सम्मेदाचलम् = सम्मेदशिखर पर, आययौ = आ
गये।
श्लोकार्थ – जब भव्यजनों द्वारा धर्मोपदेश समझने के लिये भगवान् पूछे
गये तब सभी पदार्थों के सम्बन्ध में विद्यमान अज्ञान अन्धकार को नाश करने वाली, सभी धर्मों के विवेचन से समृद्ध, और सारे तत्त्वों को प्रकाशित करने वाली दिव्यध्वनि का उच्चारण करते हुये, बत्तीस हजार पुण्य देशों में विहार करते हुये वहाँ भव्य जीवों को प्रतिबोध अर्थात् धर्म का ज्ञान देते हुये एक माह मात्र आयु अवशिष्ट रहने पर वे देवाधिदेव
भगवान्-तीर्थकर पद्मप्रभु सम्मेदशिखर पर आ गये। संहरन्दिव्यनिर्घोष शुक्लध्यानपरायणः ।
मोहनाख्यं महाकूटं स्वधाम्ना समपूर्णयत् ।।६५।। अन्वयार्थ – शुक्लध्यानपरायणः = शुक्लध्यान में तत्पर प्रभु ने, दिव्यनिर्घोषं
= दिव्यध्वनि को. संहरन् = समेटते हुये अर्थात् दिव्यध्वनि को बंद करते हुये, मोहनाख्यं = मोहन नामक, महाकूट = महान् कूट को, स्वधाम्ना = अपने धाम अर्थात् तेज से,
समपूर्ण यत् = पूर्ण कर दिया। श्लोकार्थ – अपनी दिव्यध्वनि को रोकते हुये शुक्लध्यान परायण प्रभु ने
मोहन नामक महाकूट को अपने तेज से परिपूर्ण कर दिया।