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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य किया था। तदा = तभी, वासवाझया = इन्द्र की आज्ञा से, धनेशः = कुबेर ने, अत्यदभुतं = अत्यधिक आश्चर्यजनक, समवसारं = समवसरण को, व्यरचयत् = रच दिया, तत्र = उस समवसरण में, सर्वोपरि = सबसे ऊपर, यथा = जैसे, खे = आकाश में, पारकः = पूर्वा, (हया -- ), प्रः . . भगवान्. छत्रत्रयसमुद्दीप्तः = तीन छत्रों से चमकते-दमकते
हुये. खे = आकाश में, बभौ = सुशोभित हुये। श्लोकार्थ – उग्र तपश्चरण से उन मुनिराज ने चारों घातिया कर्मों का
क्षय कर दिया | जब चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन उत्कृष्ट अनंत चतुष्टयों से युक्त प्रमु ने उत्तम केवलज्ञान प्राप्त किया था। तभी इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने अत्यधिक आश्चर्यकारी समवसरण की रचना कर दी। उस समवसरण में सबसे ऊपर भगवान तीन छत्रों के साथ दीप्तिमान होते हुये आकाश में
वैसे ही सुशोभित हुये जैसे आकाश में सूर्य दमकता है। यथासंख्यं गणेन्द्राद्यैः प्रभुदिशकोष्ठौः ।
सम्पूजितस्ततो दृष्टो शारदेन्दुरिय व्यभात् ।।६।। ___ अन्वयार्थ – ततः = और फिर, यथासंख्यं = क्रमश:. द्वादशकोष्टगैः =
बारह कोठों में स्थित. गणेन्द्राद्यैः = गणधरादि श्रोताओं द्वारा, प्रभुः = भगवान!, सम्पूजितः = पूजा किये जाते हुये, दृष्टः = दिखे, इव = मानों, शरदेन्दुः = शरद् ऋतु का चन्द्रमा
ही, व्यभात् = सुशोभित हुआ हो । श्लोकार्थ – समवसरण में क्रमशः बारह कोठों में स्थित गणधरादि श्रोताओं
ने भगवान् की पूजा की, ऐसा दिखता था मानों शरद ऋतु
का चन्द्रमा सुशोभित हो रहा हो। भव्यैर्धर्मोपदेशाय सम्पृष्टो भगवांस्तदा। उच्चरन्दिव्यनिर्घोष सर्वतत्त्वप्रकाशकम् ।।२।। सर्यधर्मोपदेशाद्य सर्वार्थतिमिरापहम् । द्वात्रिंशदुक्तसहस्रपुण्यदेशेषु देवराट् ।।३।। पद्मप्रभोऽसौ विहरन्भव्यान् प्रतिबोधयन् । मासमात्रायशिष्टायुः सम्मेदाचलमाययौ ।।६४ ।।