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___ १७५ उपविष्टा = बैठी हुयी, बद्धाञ्जलिः = हाथ जोड़ती हुयी, तं = राजा को. उवाच = बोली. स्वामिन् = हे स्वामी!, अद्य = आज, मया = मेरे द्वारा, उषसि = प्रातः वेला में. षोडश =
सोलह, स्वप्नाः = स्वप्न, समीक्षिताः = देखे गये हैं। श्लोकाथ – दनन्तर जाने के बाद पानी प्रमुख होती हुयी जल्दी
ही पति के पास गयी। पति द्वारा आओ ऐसा आदर सहित कही गयी वह योग्य आसन पर बैठ गयी और हाथ जोडकर कहने लगी-हे स्वामी! आज मैंने प्रातःबेला में सोलह स्वप्न
देखे हैं। स्वप्नान्ते मत्तमात्तङ्गः प्रविवेश भदाननम् ।
श्रुत्वा तांस्तत्फलं ब्रूहि यथार्थ प्राणवल्लभ ||३| अन्वयार्थ – स्वप्नात = स्वप्न दर्शन के अन्त में, मदाननम् = मेरे मुख
में, मत्तमात्तङ्गः = मदोन्मस हाथी, प्रविवेश = प्रविष्ट हुआ, प्राणवल्लभ = हे जीवन साथी!, तान् = उन स्वप्नों को, श्रुत्वा = सुनकर, तत्फलं = उनका फल, यथार्थ = यथार्थ अर्थात्
जैसा है वैसा, ब्रूहि = कहो । श्लोकार्थ – स्वप्न के अन्त में मेरे मुख में मदोन्मत्त हाथी प्रविष्ट हुआ।
हे जीवन साथी! उन स्वप्नों को सुनकर उनका फल जैसा
है वैसा ही कहो। श्रुत्वोदितो नृपस्वामी प्रीत्या पुलकितस्तदा । प्रोवाच तां शृणु प्राज्ञे महोद्यद्भाग्यशालिनी ।।३३।। उदरे ते समायातो महान्देवो जगत्पतिः ।
तं समीक्षिष्यते त्वं भोः समयादतुले दिने 1|३४।। अन्वयार्थ – तदा = तब, श्रुत्वा -- स्वप्नों को सुनकर, प्रीत्या = प्रीति से,
पुलकितः = रोमाञ्चित शरीर वाले, (च = और). उदितः = हर्षोदय को प्राप्त, नृपस्वामी = राजा ने, तां = उस रानी को, प्रोवाच = कहा. प्राज्ञे = हे बुद्धिमती!, शृणु = सुनो, (त्वं = तुम), महोद्यभाग्यशालिनी = महान भाग्यशालिनी, (असि = हो), ते = तुम्हारे, उदरे = पेट में, जगत्पतिः = संसार का