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श्लोकार्थ
श्लोकार्थ - तब स्वप्नों को सुनकर प्रीति से रोमाञ्चित शरीर वाले और हर्षोदय को प्राप्त राजा ने रानी को कहा- हे बुद्धिमति! सुनो तुम सर्वाधिक भाग्यशालिनी हो तुम्हारे पेट-गर्भ में जगत् का स्वामी तीर्थङ्कर होने वाला पुण्यशाली देव आ गया है। अरे! तुम उसे समय आने पर किसी शुभ दिन साक्षात् देखोगी । इति श्रुत्वा तदा देवी महानन्दमवाप सा । - गर्भिणीं तां सिषेवेऽथ प्रतिघनं पुलोमजा | |३५|| अन्वयार्थ - इति = ऐसा श्रुत्वा = सुनकर, सा उस देवी = रानी ने, महानन्दम् = विपुल आनन्द को अवाप = प्राप्त किया, अथ = फिर. तदा = तब, पुलोमजा = इन्द्राणी ने प्रतिघस्रं = प्रतिदिन, तां = उस, गर्भिर्णी = गर्भिणी रानी की, सिषेवे सेवा की।
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य स्वामी तीर्थङ्कर, महान् सर्वोत्कृष्ट पुण्यवाला, देवः = देव, समायातः = आ गया है, भोः = अरे! त्वं तुम, समयात् = समय से, अतुले = अतुलनीय, दिने = दिन, तं = उसको, समीक्षिष्यसे == अच्छी तरह साक्षात् देखोगी ।
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अन्वयार्थ
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राजा से इस प्रकार सुनकर वह रानी प्रचुर आनन्द को प्राप्त हुई। इसके बाद तभी से इन्द्राणी ने प्रतिदिन उस गर्भिणी रानी की सेवा की।
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शक्रसेव्यो नृपश्चासीदानन्द दुन्दुभिस्वनः । रत्नवृष्टिः प्रतिदिनं त्रिकालेऽपि च वर्षति ||३६|| च = और, नृपः - राजी, अपि भी. शक्रसेव्यः = इन्द्र से सेवित, आसीत् = हुआ था, (सर्वत्र = सभी जगह ), आनन्ददुन्दुभिस्वनः = आनन्ददायक नगाड़ों की ध्वनि, ( आसीत् = थी), च = और, प्रतिदिनं = प्रत्येक दिन, त्रिकाले
तीन समय, रत्नदृष्टिः = रत्नों की बरसात, वर्षति -
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बरसती थी ।
श्लोकार्थ – और राजा भी इन्द्र द्वारा सेवित हुआ। उस नगर में सभी जगह आनन्ददायक नगाड़ों की ध्वनि होती थी तथा प्रत्येक दिन तीन बार रत्नों की बरसात बरसती थी।