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पञ्चमः
श्लोकार्थ -- सुमतिनाथ भगवान की कौमार्यावस्था का वर्णन यहाँ है।
काले-काले केशों वाले, उन्नत व दैदीप्यमान मूर्धा वाले. कमल के समान सुविकसित मुख वाले, ललित-मनहर भाल पर अंकित भाग्यरेखाओं के उत्कर्ष को प्रगट करते वैभव वाले, चमकर - मते कुणालों से भारत लानों वाले, इन्द्रधनुष की शोभा से शोभायमान भौहों वाले, नीलकमल जैसे नेत्रों वाले, मतिश्रुतावधिनामक तीनों ज्ञान से जानकारी कर सूचना देने वाले, एवं ज्ञान की उत्तम लक्ष्मी से संयुक्त होने वाले, दर्पण की कान्ति को जीतने योग्य गालों वाले, बिम्बाफल के समान रक्तवर्णीय ओंठों वाले, सुन्दर दांतों वाले, सुकण्ठ अर्थात् शोभन कण्ठ वाले, सुन्दर ठोड़ी वाले, सुन्दर भुजाओं व चक्रचिन्हित वक्षस्थल वाले. गंभीर नाभि प्रदेश वाले और कछुये की पीट जैसे सुशोमित चरणकमल वाले सभी शुभ लक्षणों से जानने में आने वाले, सर्वतोभद्र अर्थात् सर्वाङ्गसुन्दर तथा लक्ष्मी के निवास स्वरूप उन सुमतिनाथ भगवान् ने अपनी कुमारावस्था में ही प्रसन्नता पूर्वक सैकड़ों
कामदेवों को जीत लिया था। हिंसाचौर्यवधं तस्य राज्ये स्वप्न पि नैव हि ।
तधशः सुखिनः सर्वे गायन्ति स्म परस्परम् ।।४।। अन्वयार्थ - तस्य = उस राजा के, राज्ये = राज्य में, स्वप्नेऽपि = स्वप्न
में भी, हिंसाचौर्यवधं = हिंसा, चोरी, वध-बन्धनादिक, नैव = नहीं ही, (आसीत् = थे), सर्वे = सभी, हि = ही, सुखिनः = सुखी लोग. परस्परं = आपस में, तद्यशः = उसके यश को,
गायन्ति स्म = गाते थे। श्लोकार्थ – उन सुमतिनाथ राजा के राज्य में हिंसा, चोरी, वध-बन्धनादि
के कार्य स्वप्न में भी नहीं थे तथा सभी लोग सुखी होकर
परस्पर राजा का यश गाया करते थे। एकोन्चत्वारिंशभिलक्षपूर्वैः स्वराज्यभाक् |
केनापि हेतुना चित्ते वैराग्यं प्राप शुद्धधीः ।।५।। अन्वयार्थ – एकोन्चत्वारिंशदिमः = उनतालीस. लक्षपूर्वैः = लाख पूर्व