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________________ १५४ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य समयावधि तक, स्वराज्यभाक = अपने राज्य के अधिकार से युक्त, (स: = उन), शुद्धधीः = निर्मल बुद्धि वाले राजा ने. केनापि = किसी भी. हेतुना :- कारण से, चित्ते = अपने मन में, वैराग्यं = वैराग्य भाव को, पाप = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ -निर्मल बुद्धि वाले उन राजा ने उनचालीस लाख पूर्व तक की अवधि में अपने राज्य का अधिकार संभाला तथा किसी कारणवश चित्त में वैराग्य को प्राप्त कर लिया। असारं सर्यसंसारं विचार्य विरतो भवत् । सारस्वतस्तुतो भूयस्तपः सारं विचिन्त्य सः ।।५१ इन्द्रोपनीता शिबिकां ह्यारूह्य सुरसेवितः । सहेतुकवनं प्राप शृण्वन्सुरजयध्वनिम् ।।२।। अन्वयार्थ - सः - वह राजा, सर्वसंसारं = सारे संमार को. असारं = सारहीन, विचार्य = सोचकर, भूयः = बार-बार. तपःसारं = तपश्चरण के सार को, विचिन्त्य = सोच विचार कर, विरतः = विरक्त, अभवत् = हो गया, सारस्थतस्तुत: = सारस्वत जाति के लौकान्तिक देवों से स्तुति किया जाता हुआ, इन्द्रोपनीता - इन्द्र के द्वारा लायी गयी, शिविकां = पालकी पर. आरूहा = चढ़कर, सुरसेवितः : देवताओं द्वारा सेवित अर्थात् निर्देशित होता हुआ, (च = और), जयध्वनि - जयकार के घोष को, शृण्वन् = सुनता हुआ, सहेतुकवनं = सहेतुक नामक तपोवन को, प्राप = प्राप्त हुआ। श्लोकार्थ – वह राजा सारे संसार को सारहीन जानकर तथा तपश्चरण की सार्थकता अच्छी तरह समझकर विरक्त हो गया और सारस्वत जाति के देवों द्वारा स्तुति किया जाता हुआ इन्द्र द्वारा सामने लायी गयी पालकी पर चढ़कर देवताओं से सेवित हुआ एवं जयकार ध्वनि सुनते हुये सहेतुक नामक वन को प्राप्त हो गया। वैशाखे शुक्लदशमी-मघानक्षत्रवासरे | सहमभूमिपैः सार्स दीक्षां जग्राह तापसीम् ।।५३।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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