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पञ्चमः
श्लोकार्थ
अन्वयार्थ चैत्रमासि = चैत्र मास में, सिते पक्षे
अन्वयार्थ
एकादश्यां सिते पक्षे चैत्रमासि चतुर्दशे । नक्षत्रेऽसौ त्रिनयनः प्रादुरासीज्जगत्पतिः । । ३५ । ।
श्लोकार्थ
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शुक्ल पक्ष में. एकादश्यां ग्यारहवीं तिथि में चतुर्टपणे नक्षत्रे = चौदहवें नक्षत्र में, असौ = वह, त्रिनयनः = तीन ज्ञान नेत्रों वाला, जगत्पतिः = जगत् का स्वामी, प्रादुरासीत् = उत्पन्न हुआ ।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में ग्यारहवीं तिथि को चौदहवें नक्षत्र में वह त्रिनेत्रधारी अर्थात् मति श्रुत एवं अवधिज्ञान का धारी
जगत्प्रभु परमात्मा उत्पन्न हुआ ।
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स्वावधेर्जन्म तस्याथ बुद्ध्वा देवपतिर्मुदा । सदेवस्तत्र चागत्य देवमादाय भक्तितः ||३६|| स्वर्णाचलं स गतवान् तत्र क्षीराब्धिवारिभिः । अभिषेकं चकारास्य सहस्राष्टघटैः शुभैः ।। ३७ ।। अपने तस्थ = प्रभु का जन्म = जन्म को, स्वावधेः अवधिज्ञान से, बुद्ध्वा = जानकर, सदेव - देवताओं सहित, सः = वह, देवपतिः = इन्द्र, मुदा = प्रसन्न मन से, तन्त्र = राजभवन में, आगत्य = आकर, भक्तितः भक्तिभाव से, देवम् = प्रभु को आदाय = लेकर, स्वर्णाचलं स्वर्णाचल मेरु पर्वत को गतवान् = गया। तत्र = वहाँ शुभैः सहस्राष्टघटैः = एक हजार आठ घटों से क्षीराब्धिवारिभिः अस्य प्रभु का, अभिषेक =
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शुभ,
क्षीरसागर के जल से, अभिषेक, चकार ==किया। - अपने अवधिज्ञान से तीर्थकर सुमतिनाथ के जन्म को जानकर देवताओं के साथ उस इन्द्र ने प्रसन्न मन से राजभवन आकर तथा भक्तिभाव से भगवान् को लेकर स्वर्ण निर्मित मेरु पर्वत पर प्रस्थान किया वहाँ उसने पाण्डुकशिला पर भगवान् का एक हजार शुभ कलशों में भरे क्षीरसागर के जल से अभिषेक किया ।
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सम्भूष्याने
वस्त्राभरणैर्देवं वेदितः । अयोध्यायां भूपभवने संस्थाप्याथ प्रपूज्य तम् । ३८ ।।