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१४.
श्री सम्मेदशिखर माहात्म - आरा लोगों को मुल न लेने वाले अनन्या सुलम, षोडश = सोलह, स्वप्नाम् = स्वप्नों को, भाग्यतः = भाग्यवश, ऐक्षत् = देखा, च और, स्वप्नस्य = स्वप्न के. अन्ते = अन्त में, तदाननं = उसके मुख में, माताः = हाथी, प्रविवेश =
प्रविष्ट हुआ। श्लोकार्थ – एक दिन श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को रात्रि
के अन्तिम प्रहर में मघा नक्षत्र में राजभवन में सो रही मंगला रानी ने अन्य लोगों को सुलभ न होने वाले अर्थात् दिखायी न देने वाले सोलह स्वप्नों को देखा तथा स्वप्न देखने के बाद उस रानी के मुख में एक गज प्रविष्ट हुआ, ऐसा लगा। प्रातः प्रबुद्धा साश्चर्या प्रभोरन्तिकमागता।
अपृच्छत् तत्फलं तस्मै स प्राह शृणु यल्लभे।।३३।। अन्वयार्थ - प्रातः = सुबह, प्रबुद्धा = जागी हुई, आश्चर्या = आश्चर्य वाली,
सा = वह रानी, प्रभोः= राजा के, अन्तिकम् = समीप, आगता = आयी, तत्फलं = स्वप्नों का फल, तस्मै = राजा से, अपृच्छत् = पूछा, सः = वह राजा, प्राह = बोला, वल्लभे =
प्रिये, शृणु = सुनो। श्लोकार्थ - सुबह-सुबह जाग कर तैयार हुई तथा आश्चर्यचकित वह रानी
राजा के समीप गयी और राजा से स्वप्नों का फल पूछने लगी।
राजा बोला प्रिये! तुम सुनो। भविष्यति सुतस्ते हि भगवानगुणसागरः ।
श्रुत्वा परममोदं सा लेभेऽभूद्गर्भवत्यथ ।।३४।। अन्वयार्थ – ते = तुम्हारा, सुतः = पुत्र. गुणसागरः = गुणों के सागर,
भगवान् = तीर्थङ्कर प्रभु, भविष्यति = होगा, (इति = इस प्रकार), श्रुत्वा - सुनकर, सा = वह रानी, परममोदं = परमानन्द को, लेभे = प्राप्त हुई. अथ = अनन्तर, गर्मवती
= गर्भवती, अभूत = हुई। श्लोकार्थ – तुम्हारा पुत्र गुणों का सागर और भगवान तीर्थकर प्रभु होगा
यह सुनकर वह रानी परम आनन्द को प्राप्त हुई तथा उसने गर्भधारण किया।