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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अन्वयार्थ – सिद्धनामजपासक्तः = सिद्ध प्रभु के नाम की जाप करने में
आसक्त, सिद्धपूजारतः = सिद्ध भगवन्तों की भाव पूजा करने कं व्यापार में प्रवृत्त, तथा च - और), सिद्धसंवादनिपुणः = सिद्ध भगवन्तों से बातचीत करने में या उनका गुणानुवर्णन करने में चतुर. (सः = वह), प्रभुः -- मुनिराज. अपि = भी, सिद्धकल्प: - सिद्धसदृश, (एव = ही), अदृश्यत = दिखायी
दिये।
श्लोकार्थ - सिद्ध प्रभु के नाम की जाप करने में मन को लगाने वाले,
सिद्धभगवन्तों की पूजा भाव पूजा करने के पुरुषार्थ में लगे हुयें तथा सिद्धों से वार्तालाप करने में अथवा सिद्धभगवन्तों का गुणानुवर्णन करने में चतुर वह मुनिराज भी सिद्धों के
समान दिखायी दिये। जम्बूद्वीपगते शुद्धे भरतक्षेत्र उत्तमे ।
कौसले विषयेऽयोध्या पुरी विश्वमनोहरा ।।२७।। अन्वयार्थ - जम्बूद्वीपगते = जम्बूद्वीप में स्थित, भरतक्षेत्रे = भरतक्षेत्र में,
शुद्ध = शुद्ध अर्थात् आर्य खण्ड में, उत्तमे = उत्तम. कौसले = कौसल. विषय = देश में, विश्वमनोहरा = सबसे सुन्दर,
पुरी =: नगरी. अयोध्या = अयोध्या. (आसीत् = थी)। श्लोकार्थ – जम्बूद्वीप में स्थित भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में कौसल नामक
देश था उसमें सबसे सुन्दर तथा जगत्प्रसिद्ध नगरी अयोध्या
थी। तत्र मेघरथो राजा मङ्गलाख्या च तत्प्रिया।
तया सह स धर्मात्मा लौकिकं सुखमन्वभूत्।।२८11 अन्वयार्थ – तत्र = उस अयोध्या नगरी में, राजा = राजा, मेघरथः =
मेघरथ, च = और. तत्प्रिया = उसकी पत्नी, मङ्गलाख्या = मङ्गला नाम की रानी. (अवर्तताम् = रहते थे), सः = उस, धर्मात्मा = धर्मनिष्ठ राजा ने. तया = रानी के. सह = साथ, लौकिकं = लौकिक, सुखं = सुख को. अन्वभूत् = अनुभूत किया, भोगा।