________________
पञ्चमः
૧૪૫ उद्धार करने के लिये, उसके प्रभाव से विशेष अर्थ करने के लिये तथा अपूर्ण अर्थ को पूर्ण करने के लिये समर्थ होता
हुआ सदा ही ब्रह्मचर्य से प्राप्त सुख को भोगता रहा। व्याख्यानं सप्ततत्यानां कुर्वन्नमितमोदभाक् ।
षण्मासायुः समस्या समाधुधि गरी सति ।।७।। अन्वयार्थ – तत्र = सर्वार्थसिद्धि की उस देव पर्याय में, आयुषि गते सति
= आयु भोग का क्रम चलते रहने पर, (सः = वह देव), सप्ततत्त्वानां = सात तत्त्वों का, व्याख्यानं = व्याख्यान. कुर्वन = करता हुआ, नमितमोदभाक् = विनम्रता और प्रसन्नता का पात्र, भूत्वा = होकर), षण्मासायः = छह माह की शेष आयु
वाला, समभवत् = हुआ। श्लोकार्थ – सर्वार्थसिद्धि विमान में प्राप्त हुई देव पर्याय में आयु को भोगने
के चलते क्रम में वह सात तत्त्वों का व्याख्यान करता हुआ तथा विनम्रता और प्रसन्नता का पात्र होकर छह माह की अवशिष्ट आयु वाला हुआ। अनन्यलभ्यसौख्येऽपि सर्वकर्मक्षयाय सः।
अनासक्तस्तदातिष्ठत्सिद्धध्यानपरायणः ।।२५।। अन्वयार्थ -- तदा = तब अर्थात् आयु के छह मास शेष रहने पर, सः =
वह अहमिन्द्र देव, अनन्यलग्यसौख्ये = अनन्य सुख की उपलब्धि होने पर, अपि = भी, सर्वकर्मक्षयाय - सभी कर्मी के क्षय की भावना के लिये, (तत्र = उस सुख में), अनासक्तः = अनासक्त हुआ, सिद्धध्यानपरायणः = सिद्धभगवन्त के
ध्यान में तत्पर होकर. अतिष्ठत् = स्थित रहा। श्लोकार्थ – आयु के छह माह शेष रहने पर उस अहमिन्द्र नामक देव ने
अन्यत्र प्राप्त न होने वाले अनन्य सूख की उपलब्धि होने पर भी सारे कर्मों के क्षय की भावना के लिये उसमें आसक्त नहीं हुआ अपितु सिद्धभगवन्तों के ध्यान में तत्पर होकर स्थित
रहा। सिद्धनामजपासक्तः सिद्धपूजारतः प्रभुः । सिद्धसंवादनिपुणः सिद्धकल्पो प्यदृश्यत ।।२६।।