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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य त्रित्रिंशत्यक्षगमन प्रस्थोऽयं समुच्छानासन् ।
चतुरगुलकन्यूनं हस्त्रमानं शरीरक: ।।२१।। अन्वयार्थ – तत्रस्थः - सर्वार्थसिद्धि में स्थित, अयं = यह देव,
त्रित्रिंशत्पक्षगमने = तेतीस पक्ष चले जाने पर, समुच्छ्वसन् = श्वासोच्छवास लेता हुआ. चतुरङ्गुलकन्यूनं = चार अंगुल कम, हस्तमात्रं = एक हाथ प्रमाण, शरीरक: = शरीर वाला
(आसीत् = था)। श्लोकार्थ – सर्वार्थसिद्धि में यह देव तेतीस पक्ष बीतने पर श्वासोच्छवास
लेता था तथा चार अंगुल कम एक हाथ ऊँचे शरीर वाला
था।
शुक्ललेश्यान्वितः श्रीमान् अवधिज्ञानसागरः । ततो नरकपर्यन्तं ज्ञातुं योद्धर्तुमप्यसौ ।।२२।। विकर्तुं स प्रभावेन, पूर्णो कर्तुं च चेतसा ।
समर्थः सततं देवो ब्रह्मचर्यसुखान्वितः ।।२३।। अन्वयार्थ - असौ = वह. श्रीमान् = कान्तिसम्पन्न देव. शुक्ललेश्यान्वितः
= शुक्ललेश्या के परिणामों वाला, च = और, अवधिज्ञानसागरः = अवधिज्ञान का समुद्र अर्थात् गंभीर और अत्यधिक विस्तृत मर्यादा वाले अवधिज्ञान का स्वामी, (आसीत् = था), ततः = उस अवधिज्ञान से, नरकपर्यन्त - नरक तक. ज्ञात = जानने के लिये, उद्धर्तुं - किसी संशयादि को प्राप्त विषय का उद्धार करने के लिये, सप्रभावेन = अवधिज्ञान के प्रभाव. से. विकर्तु = उसका विशेष अर्थ करने के लिये, च - और, तेजसा = तेज से. पूर्णाकर्तुं - अपूर्ण अर्थ को पूर्ण करने के लिये, अपि = भी, समर्थः = समर्थ होता हुआ, देवः = वह देव, सतत = निरन्तर, ब्रह्मचर्यसुखान्वितः = ब्रह्मचर्य के सुख से युक्त,
(अमवत् = हुआ)। श्लोकार्थ - वह कान्तिसम्पन्न देव शुक्ललेश्या के परिणामों वाला और
अवधिज्ञान का सागर अर्थात् गंभीर और विस्तृत मर्यादा वाले अवधिज्ञान का स्वामी था। उस अवधिज्ञान से वह देव सातवें नरक तक जानने के लिये, संशय को प्राप्त किसी विषय का