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________________ पञ्चमः १४3 तीर्थकृन्नाम सम्प्राप्य दुर्लभं सर्वमानवैः । सन्यासविधिना देहं त्यक्त्या शुचिस्थले मुनिः ।।१।। सर्वार्थसिद्धौ जातश्च सम्यक्त्वगुणान्वितो हि सः । अहमिन्द्रत्वमापदे सर्वगीर्वाणसेवितः ।।१९।। अन्वयार्थ - सर्वमानः - सभी--साधारण मनुष्यों द्वारा, दुर्लभं = जिसका पाना कठिन है उस, तीर्थकृन्नाम = तीर्थकर नामकर्म को, सम्प्राप्य = प्राप्त करके, मुनिः = मुनिराज, शुचिस्थले = पवित्र स्थान पर, सन्यासविधिना = सन्यास मरण की विधि द्वारा, देहं = शरीर को, त्यक्त्वा = छोड़कर, सर्वार्थसिद्धौ = सर्वार्थसिद्धि में, जातः = उत्पन्न हुआ, च = और, सम्यक्त्वगुणान्वितः = सम्यक्त्व गुण से युक्त, सः = उस देव ने, सर्वगीर्वाणसेवितः = सभी देवताओं से सेवित-पूजित होते हुये, हि = ही. अहमिन्द्रत्वम् = अहमिन्द्र पने को, आपदे = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ – सभी साधारण मनुष्यों द्वारा जिसका पाना कठिन है उस तीर्थङ्कर नामकर्म नामक महान् पुण्य प्रकृति को पाकर मुनिराज पवित्रस्थान पर सन्यासमरण पूर्वक शरीर को छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुये और सम्यक्त्व के गुण से परिपूर्ण उस देव ने सभी देवताओं से सेवित होते हुये ही अहमिन्द्रपने को प्राप्त कर लिया। त्रित्रिंशत्सागरायुः स त्रित्रिंशत्सम्मितेषु च । सहस्राच्छेषु गच्छत्सु मानसाहारमाहरत् ।।२०।। अन्वयार्थ - त्रित्रिंशत्सागरायुः = तेतीस सागर की आयु वाला, सः = वह देव, त्रित्रिंशत्सम्मितेषु सहस्राच्छेषु = तेतीस हजार वर्ष, गच्छत्सु = बीत जाने पर, मानसाहारम् = इच्छा से कंठनिसृत अमृत-आहार को, आहरत् = लेता था। श्लोकार्थ - तेतीस हजार वाला वह देव तेतीस हजार वर्ष बीत जाने पर मन में इच्छा होने मात्र से कण्ठनिसृत अमृत-आहार लेता था।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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