SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = = ( सः उसको, असारं असारभूत, हि = ही, बुद्ध्वा = जानकर, वह राजा ), तपःकृते तपस्या के लिये, समुत्सुकः = अच्छी तरह उत्सुक होता हुआ, अतिरथाख्याय अतिरथ नामक पुत्राय = बेटे के लिये, राज्यं = राज्य को, दत्त्वा = देकर, वनं = वन को, गतः = चला गया । = श्लोकार्थ – इस संसार में जो कुछ भी सारभूत लगता है वह सभी असारभूत है ऐसा जानकर वह राजा तप के लिये उत्सुक होता हुआ पुत्र अतिरथ को राज्य सम्पदा देकर वन को चला गया । श्लोकार्थ = जग्राह चैव सुप्रनेन चेवसा । एकादशाङ्गविद् भूत्वा देहस्नेहं समत्यजत् ||१६|| अन्वयार्थ – तत्रैव = वन में ही, (सः उसने), सुप्रसन्नेन प्रसन्न, चेतसा = मन से, दीक्षां = मुनि दीक्षा को जग्राह ग्रहण कर लिया, ( च = और), एकादशाङ्गविद् = ग्यारह अगों का ज्ञाता, भूत्वा होकर, देहस्नेहं = देह के राग को, समत्यजत् छोड़ दिया | दीक्षां - - = = = = उस वन में ही उस राजा ने प्रसन्न मन से मुनि दीक्षा को ग्रहण कर लिया तथा ग्यारह अङ्ग का ज्ञाता होकर उसने शरीर के राग को भी छोड़ दिया। विजित्य मोहशत्रुं स कारणानि च षोडश । सम्भाव्य तप उग्रं च दधार वनगो मुनिः ||१७|| = = अन्वयार्थ सः = उन, वनगः = वन को गये हुये, मुनिः मुनिराज ने. मोहशत्रुं = मोह शत्रु को विजित्य जीतकर, च = और, षोडश सोलह कारणानि = कारणों को, सम्भाव्य = सम्यक् भाकर, च = समुच्चय सूचक, उग्रं = उत्कट-कठिन, तपः = तपश्चरण को, दधार - धारण कर लिया। = श्लोकार्थ - वन को गये हुये उन मुनिराज ने मोह शत्रु को जीतकर तथा सम्यक् रूप से सोलह कारण भावनायें भाकर उग्र तपश्चरण धारण कर लिया ।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy