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________________ पञ्चमः ५४५ अन्वयार्थ - न्यायनीतिक्षमायुक्त्तः = न्याय, नीति और क्षमा से युक्त, सम्यक्त्वगणभूषितः = सम्यक्त्व गुण से विभूषित, महोदयः = महान् पुण्योदय वाले, सः - उस राजा ने, स्वकं = अपने, निष्कण्टक = निष्कंटक, राज्यं = राज्य को, अन्वभूत् = भोगा, उसका अनुभव किया। श्लोकार्थ – न्याय, नीति और क्षमा से युक्त, सम्यक्त्वगुण विभूषित सम्यग्दृष्टि महान पुण्यशाली उस राजा धृतिषेण ने अपने निष्कंटक राज्य को भोगा, उसका अनुभव किया। कदाचित्सौधमारूह्य सिंहासनगतः प्रभुः। अपश्यत्स्वपुरं रम्यं सर्वसिद्धिसमृद्धिमत् ।।१३।। अन्वयार्थ – कदाचित् = कभी. सौधम् = महल पर, आरुह्य = चढ़कर, सिंहासनगतः := सिंहासन पर बैठे हुये, प्रभुः = राजा ने, सर्वसिद्धिसमृद्धिमत् = सारी सिद्धियों और समृद्धि से भरपूर, रम्यं == मनोहर, स्वपुरं - अपने नगर को, अपश्यत् = देखा । श्लोकार्थ – किसी दिन अपने महल के ऊपर चढ़कर सिंहासन पर बैठे हुये उस राजा ने अपने सर्वविधि सिद्धिसम्पन्न और समृद्धि से भरपूर नगर को देखा। मृतपुत्रं समादाय गच्छन्तं पथि मानवम् । कञ्चिन्निरीक्ष्य भव्योऽसौ तत्क्षणाद्विरतोऽभवत् ।।१४।। अन्वयार्थ – मृतपुत्रं = मरे हुये बेटे को, समादाय = लेकर, पथि = रास्ते पर, गच्छन्तं = जाते हुये, कञ्चित् = किसी, मानवं = मनुष्य को, निरीक्ष्य - देखकर, असौ = वह भव्यः - भव्य राजा, तत्क्षणात् = उसी क्षण, विरतोऽभवत् = विरक्त हो गया। श्लोकार्थ – अपने मरे हुये बेटे को लेकर रास्ते पर जाते हुये किसी मनुष्य को देखकर वह भव्य राजा उसी समय विरक्त हो गया अर्थात् वैराग्यभाव को प्राप्त हुआ। बुद्ध्या सारं ह्यसारं तत् तपःकृते समुत्सुकः । पुत्रायालिरथाख्याय राज्यं दत्वा वनं गतः ।।१५।। अन्वयार्थ – (जगति = संसार में. यत् = जो). सारं = सारभूत है. तत्
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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