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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य राज्यम् = राज्य , प्रतिपच्चन्द्रवत् - प्रतिपदा के चन्द्रमा के
समान, वृद्धिमुपागतम् = वृद्धि को प्राप्त हुआ। श्लोकार्थ – उस राजा का पराक्रम भी प्रतिदिन बढ़ता ही गया तथा उसने
साम-दाम-वचोदण्ड और भेद की नीतियों को लागू करके सारी पृथ्वी को अपने आधीन बना लिया एवं प्रजा को अनुरंजित व आनन्दित किया। उसका राज्य प्रतिपदा के
चन्द्रमा की भांति निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होता गया । वर्णाश्रमोचितांश्चैव राजा धर्मानचालयत् ।
सर्वेषामावसध्यित्ते स भूमीशः स्वसद्गुणैः ।।१०।। अन्वयार्थ ... राजा = राजा ने, वर्णाश्रमोचितान् = वर्णाश्रम व्यवस्था के
योग्य, एव = ही, धर्मान् = धर्मों को, अचालयत् = चलाया, च = और, सः - वह, भूमीशः = राजा, स्वसद्गुणैः = अपने अच्छे गुणों के कारण, सर्वेषाम् = सभी लोगों के, चित्ते =
चित्त में. आवसत् = बस गया। श्लोकार्थ – अपने राज्य में उस राजा ने वर्णाश्रम व्यवस्था के योग्य ही
धर्मों को चलाया तथा अपने सदगुणों के कारण वह राजा
सभी लोगों के मन में बस गया। जितेन्द्रियस्य तस्यासन् जितेन्द्रियगुणाः प्रजाः ।
ईतयः सप्त नो दृष्टास्तस्य देशे सुधर्मिणः ।।११।। अन्वयार्थ – तस्य = उस, जितेन्द्रियस्य = जितेन्द्रिय राजा के, प्रजा: =
प्रजाजन. (अपि = भी), जितेन्द्रियगुणाः = जितेन्द्रियगुण वाले, आसन् = थे, तस्य = उस, सुधर्मिणः = धर्मात्मा राजा के, देशे = देश में, सप्त = सात, ईतयः = ईति-भीति आदि
विपत्तियाँ, नो = नहीं, दृष्टाः = देखी जाती थीं। श्लोकार्थ – उस जितेन्द्रिय राजा धृतिषेण की प्रजा भी जितेन्द्रिय गुणों
वाली थी। उस धर्मात्मा राजा के देश में ईति-भीति आदि विपत्तियाँ कभी भी नहीं देखी गयीं थीं। न्यायनीतिक्षमायुक्तः सम्यक्त्वगुणभूषितः । निष्कण्टकं स्वकं राज्यमन्चभूत्स महोदयः ।।१२।।