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________________ १२८ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य गुर्वासक्तो गुणनिधिर्भय्यो भव्यजनस्तुतः । स्वधर्मसाधने रक्तः प्रजासन्तोषकारकः ।।५५।। स एकदा निजेच्छातः सेवकानुगतः प्रभुः । प्रोत्फुल्लमृदुमालाढ्यं मुदा युक्तो पनं ययौ ।।५६।। अन्वयार्थ – एकदा = एक दिन, गुर्वासक्तः = गुरुभक्ति में आसक्त. गुणनिधिः = गुणों की खान, भव्यजनस्तुतः = भव्यजनों से स्तुति किया जाता हुआ. भव्यः = भव्य, स्वधर्मसाधने = अपने धर्म का पालन करने में, रक्तः = अनुरागी, प्रजा सन्तोषकारकः = प्रजाजनों को संतुष्ट करने वाला, सः = वह, प्रभुः = राजा. निजेच्छातः = अपनी इच्छा से, सेवकानुगतः = सेवकों से अनुगमन कराया जाता हुआ, मुदा = प्रसन्नता से, युक्तः = सहित होकर, प्रोत्फुल्लमृदुमालाढ्यं = खिले हुये कोमल फूलों और फूलमालाओं से समृद्ध, वनं = वन को, ययौ = गया ! श्लोकार्थ - एक दिन गुरुभक्ति से पूर्ण, गुणों का पुज्ज, भव्यजनों द्वारा स्तुति किये जाने योग्य, स्वयं भी भव्य, स्वधर्म का पालन करने में अनुरागी, और प्रजाजनों को संतुष्ट करने वाला वह राजा अपनी इच्छा से सेवकों का अनुसरण करते हुये और प्रसन्नता से फूलता हुआ खिले हुये कोमल सुन्दर फूलों और पुष्पमञ्जरियों की मालाओं से समृद्ध वन को गया। सिंहसेनो मुनिस्तत्र तत्समीपं स भूमिपः 1 गत्या मनोवचः कायैस्तत्पादौ चाप्यवन्दत ।।५७।। अन्ययार्थ – तत्र = वहा उस वन में, सिंहसेनः = सिंहसेन, मुनिः = मुनिराज, आसीत् = थे. सः = उस, भूमिपः = राजा ने, तत्समीपं = उनके निकट, गत्वा = जाकर, अपि = भी, च = और, मनोवचःकायैः = मन, वचन और काय से. तत्पादौ = उनके चरणों की, अवन्दत = वन्दना की। श्लोकार्थ -- उस वन में मुनिराज सिंहसेन विराजमान थे। वह राजा उनके पास गया और उसने मन-वचन-काय से उनके चरणों की वन्दना की।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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