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चतुर्थ
पुनर्मुनिं स पप्रच्छ प्रसन्नमनसा नृपः । तद्वक्त्रचन्द्रकिरणैर्विकसन्नेत्राभ्यामिव ।। ५८ ।।
अन्वयार्थ - पुनः
मानों,
नेत्रों से, (च = मुनिराज को,
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फिर, सः = उस नृपः = राजा ने, इव तद्वक्त्रचन्द्रकिरणैः उनके मुख रूपी चन्द्रमा से निकली किरणों से, विकसन्नेत्राभ्याम् = खिले हुये और). प्रसन्नमनसा = प्रसन्नमन से, मुनि पप्रच्छ = पूछा । श्लोकार्थ – फिर उस राजा ने मानो मुनिश्री के मुखचन्द्र से निकलती हुई किरणों से अपने नेत्रों को खिला लिया और उन खिले हुये नेत्रों से और प्रसन्न मन से मुनिराज को पूछा ।
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महाराज मुने शैलराजः सम्मेद उत्तमः । तयात्रोत्सुकता गुर्वी मच्चेतसि सदा स्थिता ।। ५६ ।। अन्वयार्थ - मुने महान ! हे मुनि महाराज!, सम्मेदः सम्मेद नामक, ( यः = जो ), उत्तमः श्रेष्ठ, शैलराजः = पर्वतराज, (विद्यते = है), तयात्रोत्सुकता उस शैलराज की यात्रा करने की उत्सुकता, गुर्वी = अत्यधिक प्रबल, मे मेरे चेतसि = चित्त में, सदा = हमेशा, स्थिता स्थित रहती. (अस्ति = है ) । श्लोकार्थ हे मुनि महाराज! सम्मेदशिखर नामंक जो उत्तम पर्वतराज है उस शैलराज की यात्रा करने की अत्यधिक प्रबल और उत्कट इच्छा मेरे मन में सदैव विद्यमान रहती है।
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महामुने ।
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भाविनी तस्य यात्रा मे किं वा नैव सर्वज्ञस्त्वं तदाचक्ष्व श्रुत्वेति प्राह तं मुनिः । । ६०|| अन्वयार्थ - महामुने = है. महामुनि! तस्य उस सम्मेदशिखर शैलराज की, यात्रा - तीर्थवन्दना रूप यात्रा, किं क्या, मे = मुझे, भाविनी = होने योग्य है, वा = अथवा, नैव = तुम, सर्वज्ञः इसलिये, आचक्ष्व = कहिये, इति इस प्रकार, श्रुत्वा सुनकर, मुनिः = मुनिराज, प्राह = बोले ।
नहीं, त्वं
= सब कुछ जानने वाले, (असि = हो), तत् =
श्लोकार्थ - हे महामुनि! उस सम्मेदशिखर शैलराज की यात्रा क्या मुझे
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