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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
प्रभुः ।
केवलज्ञानदीप्ताग्निदग्धकर्मवनः पूर्वोक्तमुनिभिः सार्धं निर्वाणपदमवाप सः ।।४६ ।। अन्वयार्थ - केवलज्ञानदीप्ताग्निदग्धकर्मवनः = केवलज्ञान से प्रदीप्त अग्नि में कर्मवन को जला देने वाले, सः - उन, प्रभुः = भगवान् ने पूर्वोक्तमुनिभिः पूर्वोक्त हजार मुनियों के सार्धं = साथ, निर्वाणपदम् = निर्वाणपद को, अवाप प्राप्त किया। श्लोकार्थ केवलज्ञान से प्रदीप्त की गई अग्नि में बचे हुये अघातिया कर्मों के बम को जला देने वाले उन भगवान् ने पूर्वोक्त एक हजार मुनिराजों के साथ निर्वाण पद प्राप्त कर लिया।
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तत्प्रमाधिष्ठः
तत्कूटयात्रामाहात्म्यमुत्तमम् ।
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ज्ञात्या येन कृता यात्रा तथा तत्कथयाम्यहम् ||५० ।। अन्वयार्थ - तत्कूटयात्रामाहात्म्यम् = सम्मेदशिखर के आनन्दकूट की यात्रा के महत्त्व को, उत्तमम् = उत्तम, ज्ञात्वा = जानकर, येन जिसके द्वारा, यात्रा = तीर्थवंदना रूप यात्रा, कृता की गयी, तथा उसी प्रकार तत्प्रमाधिष्ठः = उसके ज्ञान के अधीन होता हुआ या उसके ज्ञान में अपनी बुद्धि को स्थित करता हुआ, अहम् = मैं कवि, तत्कथां सम्मेदशिखर यात्रा के माहात्म्य की कथा को, कथयामि = कह रहा हूँ । श्लोकार्थ कवि स्वयं कह रहा है कि सम्मेदशिखर के आनन्दकूट की यात्रा का महत्त्व सर्वोत्तम जानकर जिस के द्वारा तीर्थवंदना रूप यात्रा की गयी उसके ज्ञान के अधीन होते हुये या उस यात्रा रूप ज्ञान में अपनी बुद्धि को स्थित किये हुये मैं वैसे ही उस सम्मेदशिखर यात्रा के माहात्म्य की कथा को कहता
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कोटिः सप्ततिकोटयः ।
त्रिसप्तत्युक्तकोटीनां सप्ततिप्रोक्तलक्षं च सप्त संख्याशतप्रमान् ।।५१।। सहस्राणि द्विचत्वारिंशत्पराणि शतानि च ।
पञ्चेत्युक्तप्रमाणा हि तत्रस्थाः सिद्धतां गताः । ५२ ।। अन्वयार्थ - त्रिसप्तत्युक्तकोटीनां कोटि = तिहत्तर कोड़ा कोड़ी,