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चतुर्थः
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पुरादित्या तत्र देयं भक्त्तिनिर्भरमानसाः ।
सर्वे गणधरास्ते च ददृशुः प्रेमतः प्रभुम् ।।४।। अन्वयार्थ – देवं = भगवान् के प्रति, मक्तिनिर्मरमानसाः = भक्ति से
छलाछल भरा है मन जिनका ऐसे मनुष्यों, सर्वे गणधराः = सारे गणधरों, च = और, ते = उन देवताओं ने, पुरात् = नगर से, तत्र = समवसरण में, इत्चा = जाकर, प्रेमतः =
प्रेमपूर्वक. प्रभुं = प्रभु को ददृशुः . देशा ! श्लोकार्थ – भगवान् के प्रति भक्ति रस से छलाछल भरे हुये मन वाले
मनुष्यों ने, गणधरों ने और सभी देवताओं ने नगर से
समवसरण में पहुँचकर बड़े प्रेम से भगवान् को देखा। घातिकर्मक्षयाद्देवः पञ्चमज्ञानसंयुतः ।
चतुष्टयमनन्तानां प्राप भानुरिवोज्ज्वलन् ।।४१।। अन्वयार्थ – घातिकर्मक्षयात् = घातिया कर्मों का क्षय हो जाने से.
पंचमज्ञानसंयुतः = केवलज्ञानसंयुक्त, देवः = भगवान् ने, भानुःश्व = सूर्य के समान, उज्ज्वलन् = चमकते हुये-उज्ज्वलित होते हुये, अनन्तानां = अनन्तों के, चतुष्टयं
= चतुष्टय को, प्राप = प्राप्त किया। श्लोकार्थ – सभी घातिया कर्मों का क्षय हो जाने से केवलज्ञानी प्रभु ने
सूर्य के समान भास्वरित होते हुये अनन्तचतुष्टय को प्राप्त
किया। संपृष्टः स तदा देवो मुनिभिर्वृद्धयाणिभिः । विचित्रदिव्यध्यनिना चक्रे धर्मोपदेशनम् ।।४२।। अन्वयार्थ – तदा = तभी, वृद्धवाणिभिः = वृद्ध अर्थात् गंभीर गरीयसी वाणी
वाले, मुनिभिः = मुनिराजों अर्थात् गणधरों द्वारा, संपृष्टः = पूछे गये, सः - उन, देवः = प्रभु ने, विचित्र दिव्यध्वनिना = नाना भाषाओं में समझी जाने वाली दिव्यध्वनि द्वारा,
धर्मोपदेशनं - धर्म के उपदेश को, चक्रे = किया। श्लोकार्थ - प्रभु की अनंत चतुष्टय लक्ष्मी जब प्रगट हुई तभी गणधर
मुनिराजों द्वारा पूछे गये उन भगवान् ने अनेक भाषाओं में