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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अष्टादशाब्दमौनस्थो महोग्रतपः आचरन् । शिरीषतरूमूले च पौषे मास्यसिते दले ।।३७ ।। चतुर्दश्यामनुप्राप
केवलज्ञानमुत्तमम् ।. तत्क्षणादेव सम्प्राप्ता सेन्द्रास्तत्र दिवौकसः ।।३८।। सनमार्थ – गटादशल्द = अहमद वर्ष तक मौन रहते हुये,
महोग्रतपः = अति उग्र तपश्चरण को, आचरन् = करते हुये या आचरते हुये, शिरीषतरूमूले = शिरीषवृक्ष के मूल में अर्थात् नीचे, पौषे = पौष. मासि = माह में, असिते = कृष्ण, दले = पक्ष में, चतुर्दश्यां = चतुर्दशी के दिन. (असौ = उन प्रभु ने), उत्तमम् = सर्वोत्कृष्ट, केवलज्ञानम् = केवलज्ञान को, अनुप्राप = अनुसरण पूर्वक प्राप्त किया। तत्र च = और वहाँ तत्क्षणादेव = उसी क्षण ही, सेन्द्राः = इन्द्र सहित, दिवौकसः
= देवता, सम्प्राप्ताः = उपस्थित हो गये। श्लोकार्थ - अठारह वर्ष तक मौन रहते हुये और अत्यंत उग्र तपश्चरण
करते हुये उन मुनिराज ने शिरीष वृक्ष के नीचे पौष मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्दशी के दिन उत्तम केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और तत्क्षण ही वहाँ इन्द्र सहित देवतागण उपस्थित
हो गये। तदा समवसारं ते विरच्याद्भुतमुत्तमम् ।
देवं संस्थापयामासुः तत्र भक्त्यार्चयन्तम् ।।३६ ।। अन्वयार्थ – तदा = जब केवलज्ञान हो गया तब, ते = उन देवों ने.
अद्भुतम् = आश्चर्यकारी, उत्तमम् = उत्तम. समवसारं = समवसरण को, विरच्य - रचकर, तत्र = उस समवसरण में, भक्त्या = भक्ति से, अर्चयन्तं = पूजे जाते हुये, देवं = भगवान्
को, संस्थापयामासुः = संस्थापित किया। श्लोकाचं - केवलज्ञान हो जाने के उपरान्त देवताओं ने आश्चर्य उत्पन्न
करने वाले सर्वोत्तम समवसरण की रचना करके उसमें भक्त्ति से पूजे जाते हुये भगवान् को विराजमान किया।