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११८.
श्लोकार्थ
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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देवेन्द्रः = देवेन्द्र ने, महाद्युतिं = अत्यधिक कान्तिमान्, पूर्वास्यं - पूर्व दिशा की तरफ मुख वाले देवं प्रभु को संस्थाप्य = स्थापित करके, जयनिर्घोषपूर्वकं जय-जयकार के घोष पूर्वक, क्षीरवारिधिवारिभिः = क्षीरसागर के जल से अभिषिच्य अभिषेक करके, पुनः - फिर से, मुदा हर्ष सहित, साकेत नगरं = अयोध्या नगर को भाप प्राप्त किया।
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गर्भ में आने के बाद प्रभु ने माघशुक्ला द्वादशी के दिन जन्म लिया तो देवताओं के साथ आकर इन्द्र प्रभु को लेकर प्रसन्नता से भरा हुआ मेरु पर्वत पर गया। वहाँ पाण्डुक शिला पर पूर्व की तरफ मुख करके उन परम कान्तिमान् प्रभु को स्थापित कर प्रसन्नता से भरपूर उस देवेन्द्र ने जय जयकार की घोषणा पूर्वक क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया और प्रसन्नता सहित साकेत नगर को पुनः प्राप्त किया । प्रभुं संस्थाप्य रत्नसिंहासनोपरि ।
भूपाङ्गणे
प्रभु
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संपूज्य विधिवद्भूयः ताण्डवं संविधाय सः || २६ || अभिनन्दननामानं कृत्वा तं देवतेश्वरम् । मात्रे समर्प्य त्रिदशैः सह प्रापामरावतीम् ।। २७ ।। अन्ययार्थ भूपाङगणे = राजा के आंगन में रत्नसिंहासनोपरि = रत्ननिर्मित सिंहासन पर भगवान् को, संस्थाप्य = स्थापित कर या बैठाकर विधिवत् = विधिपूर्वक भूयः = बार-बार, संपूज्य पूजकर, ताण्डवं = ताण्डवनृत्य को, संविधाय = करके, (च और), अभिनन्दननामानं अभिनन्दन नामकरण, कृत्वा = करके, सः वह इन्द्र, तं = उन, देवतेश्वरं देवों के स्वामी प्रभु को मात्रे = माता के लिये, समर्प्य = देकर सौंपकर त्रिदशैः सह = देवताओं के साथ, अमरावतीम् = अमरावती को प्राप = प्राप्त हो गया अर्थात् चला गया।
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श्लोकार्थ राजा के आंगन में रत्नजड़ित सिंहासन पर भगवान् को बैठाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करके, उनके सामने ताण्डव नृत्य करके और उनका नाम अभिनन्दन रखकर वह इन्द्र