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चतुर्थः
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माता के लिये प्रभु को देकर देवताओं के साथ अमरावती चला
गया। दशलक्षोक्तकोट्युक्तसागरेषु गतेषु च। शम्भवात्स समुत्पन्नस्तदभ्यन्तरजीवनः ।।२८।। पंचाशल्लक्षपूर्वायुः सार्धत्रिशतचापकः । कायोत्सेधः स्वर्णकान्तिः सुखमासादायन्प्रभुः ।।२६।। अभ्यनन्दयदीशोऽभिनन्दनः पितरौ तदा।
भूपाङ्गणे रिङ्खयामास स्वकीयैर्वालचेष्टितैः ।।३०।। अन्वयार्थ – शम्भवात् = तीर्थङ्कर संभवनाश के बाद,
दशलक्षोक्तकोट्युक्तसागरेषु = दश लाख करोड़ सागर, गतेषु = चले जाने पर, सः = वह अभिनन्दन प्रभु, समुत्पन्न = उत्पन्न हुये, (आसीत् = थे), तदश्यन्तरजीवनः = उनका उस भव में जन्म से निवार्ण तक के बीच का जीवन, पंचाशल्लक्षपर्वा यः - पचास लाख पर्व की आयु वाला, कायोत्सेधः = शरीर की ऊँचाई. सार्धत्रिशतचापक: = साढ़े तीन धनुष. (आसीत् = थी), तदा - तभी. सुखं = सुख को, आसादयन् = प्राप्त करते हुये. स्वर्णकान्तिः = स्वर्ण की कान्ति के समान गौरवर्णीय, ईशः - तीर्थङ्कर, अभिनन्दन प्रभुः = अभिनन्दननाथ स्वामी ने, भूपाङ्गणे = राजा के आंगन में. स्वकीयैः = अपनी, बालचेष्टितैः = बालचेष्टाओं द्वारा, पितरौ = माता-पिता को, रिङ्ख्यामास = रिझाया. प्रसन्न
किया। श्लोकार्थ – तीर्थङ्कर संभवनाथ के बाद दस लाख करोड सागर बीत
जाने पर अभिनन्दन भगवान उत्पन्न हये थे। उनका उस भव का अभ्यंतर जीवन अर्थात् जन्म से निर्वाण के बीच का जीवन पचासलाख पूर्व की आयु वाला था। शरीर की ऊँचाई साढ़े तीन हाथ थी। तभी अर्थात् उस बाल्यावस्था में ही स्वर्ण की कान्ति समान गौरवर्ण वाले तीर्थड़कर भगवान् अभिनन्दननाथ ने राजा के आंगन में अपनी बालोचित चेष्टाओं से माता पिता को रिझाया-आनंदित किया।