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चतुर्थः
श्लोकार्थ - उसके बाद वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में उस रानी ने सोलह स्वप्नों को देखा तथा अन्त में अपने मुख में प्रविष्ट होते हुये हाथी को देखकर यह जान गयो । प्रातः होने पर उस शीलवती रानी ने पति के समीप पहुँचकर यथावत् देखे हुये सोलह स्वप्नों को कहा । तेषां
तं
श्रुत्वा ऽनन्दनिर्भरा । देवमहमिन्द्राख्यमुत्तमम् ।। २२ ।।
भूपाननात्फलं दधौ προ अन्वयार्थ - भूपाननात् = राजा के मुख से, तेषां = उन स्वप्नों का, फलं = फल, श्रुत्वा = सुनकर, आनन्दनिर्भरा - आनन्द से भरी हुयी, (राज्ञी = रानी ने), अहमिन्द्राख्यं = अहमिन्द्र नामक, तम् = उस, उत्तमं उत्तम, देव = देव को, गर्भेण गर्भ द्वारा, द ै = धारण किया।
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राजा के मुख से उन स्वप्नों का फल सुनकर रानी आनन्द से भर गयी और उसने अहमिन्द्र नामक उस उत्तम देव को अपने गर्भ में धारण किया ।
श्लोकार्थ
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ततः 'स' माघमासस्य द्वादश्यां शुक्लपक्षके । इन्द्रस्तदा सगीर्वाणः समागत्य समादाय गतो मेरुं तत्र देवं संस्थाप्य तत्र पूर्वास्थं देवेन्द्रो मोदनिर्भरः ||२४|| क्षीरवारिधिवारिभिः स
प्रभुं मुदा ।। २३ ।। महाद्युतिम् ।
जयनिर्घोषपूर्वकम् ।
अभिषिच्य पुनः प्राप साकेतनगरं
अन्वयार्थ
मुदा ।।२५।।
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ततः गर्भ में आने के बाद, सः उन प्रभु ने, माघमासस्य = माघ माह के शुक्लपक्षके शुक्लपक्ष में, द्वादश्यां द्वादशी तिथि के दिन ( जनिमलभत = जन्म लिया), तदा = तब, तत्र वहाँ, सगीर्वाणः देवताओं के साथ. आकर, इन्द्रः = इन्द्र, मुदा = प्रसन्नता के साथ, प्रभुं प्रभु को, समादाय = लेकर, मेरुं = मेरु पर्वत पर गतः = गया। तत्र = वहाँ मेरु की पाण्डुक शिला पर, सः = उस, मोदनिर्भर:
समागत्य
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= प्रसन्नता से भरे ह
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