SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री व्यजिज्ञपदुदारधीः । एकदा सा महाराजं = देव पुत्रनिमित्तं हि यत्नः कार्यस्त्वयाधुना ।। ६५ ।। अन्वयार्थ एकदा = एक दिन, उदारधीः = उदार बुद्धि वाली, सा = उस रानी ने महाराजं महाराज से व्यजिज्ञपद् = जिज्ञासा प्रकट की या निवेदन किया। देव हे स्वामी!, अधुना अब, त्वया = तुम्हें, पुत्रनिमित्तं = पुत्र पाने के निमित्त, हि = अवश्य, यत्नः = प्रयास, कार्य: श्लोकार्थ - एक दिन उदार बुद्धि वाली उस रानी ने राजा से अपने मन की बात कही या निवेदन किया कि हे स्वामी! अब तुम्हें पुत्र पाने के लिये अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये । करना चाहिये । १०४ - = स प्राह कर्मवशतः प्राप्यतेऽत्र शुभाशुभम् । उवाचैषा तथापीश यत्नात्सिद्धिः स्मृता बुधैः ।। ६६ ।। अन्वयार्थ सः = वह राजा, प्राह - बोला, अत्र - यहाँ, कर्मवशतः कर्मोदय के वश से अर्थात् कर्म के उदय अनुसार ( जीवेन = जीव द्वारा), शुभाशुभम् = शुभ और अशुभ फल प्राप्यते = प्राप्त किया जाता है । एषा यह रानी, उवाच बोली, ईश! हे स्वामी!, तथापि = फिर भी, (त्वया प्रयत्नो विधेयः = तुम्हें प्रयत्न करना चाहिये). ( यतः = क्योंकि), बुधैः - विद्वानों द्वारा, यत्नात् = प्रयत्न से सिद्धिः = सफलता, स्मृता = स्मृत होती है, बतायी जाती है। = J . = शिखर माहात्म्य - द्वौ तदानीं च विपिने गतौ चम्पाशिलोपरि । अशोकवृक्षमूले चापश्यतां चारणौ श्लोकार्थ उत्तर में राजा बोला इस लोक में कर्मोदय के अनुसार ही शुभ और अशुभ फल जीवों द्वारा प्राप्त किये जाते हैं। शुभोदय के विना क्या प्रयास करें तो रानी बोली हे देव! फिर भी आपको प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि विद्वज्जनों ने "प्रयत्न करने से कार्य की सिद्धि होना " कहा है। * भुनी ||६७ ।। 1 1 :
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy