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________________ तृतीया १०५ अन्यथार्थ - तथागों घ .. और उसी १५ वी = वे दोनों, गतौ = चल दिये, विपिने च = और जंगल में, अशोकवृक्षमूले = अशोकवृक्ष के मूलभाग में नीचे, चम्पाशिलोपरि = चम्पा नामक शिला के ऊपर, चारणौ = चारण ऋद्धिधारी, मुनी = दो मुनियों को, अपश्यताम् = देखा। श्लोकार्थ - और उसी समय वे दोनों राजा और रानी घूमने चल दिये। उन्होंने वन में अशोकवृक्ष के नीचे और चम्पानामक शिला के ऊपर बैठे हुये दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों को देखा। परिक्रम्य च तो धीरौ यंदेते स्वस्वभावतः । पुनस्तं प्राह भूमीशो मुने! शृणु वचो मम ||६८।। अन्ययार्थ · चे - और, तौ = उन दोनों ने, स्वस्वभावतः = अपने नमन करने योग्य स्वमाव से ही, धीरौ = धीर-गंभीर उन दोनों मुनिराजों को, वंदेते = नमस्कार किया। पुनः = फिर, मूमीशः = राजा, तं = उनमें से एक मुनिराज को, प्राह = बोला, मुने = हे मुनिवर! मम = मेरे, वचः = वचन. शृणु = सुनिये। श्लोकार्थ - उन दोनों राजा-रानी ने अपने नमस्कार करने वाले स्वभाव से ही उन दोनों धीर-गंभीर मुनिराजों को नमस्कार किया, उनकी वन्दना की। इसके बाद फिर राजा ने एक मुनिराज से कहा मुनिवर! आप मेरे वचन सुनें। अपुत्रोऽहं जगत्यस्मिन् भविष्यत्यपि या न मे। विचार्याह मुनिर्भूपं राजन्मद्वचनं कुरू ।।६६ || अन्वयार्थ - अस्मिन् - इस, जगति = जगत में, अहं = मैं, अपुत्रः = पुत्रहीन, (अस्मि = हूँ), अपि = क्या?. मे = मेरा, (पुत्रः = पुत्र) भविष्यति = होगा, वा = अथवा, न = नहीं, मुनिः = मुनिराज, विचार्य = विचार करके, भूपं = राजा को, आह = बोले, राजन् = हे राजन! मवचनं = मेरे वचनानुसार, कुरु = तुम करो। श्लोकार्थ - इस जगत में मैं पुत्रहीन हूँ। क्या मेरे पुत्र होगा अथवा नहीं
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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