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तृतीया
की सारी टोकों की पूजा-वन्दना करने से जितना फल प्राप्त होता है उस फल को तो वाग्देवी भी नहीं कह सकती है फिर मुझ जैसा अल्पबुद्धि कवि उस को कहने में समर्थ कैसे हो
सकता है अर्थात नहीं हो सकता है! जम्बूद्वीपेऽथ सुक्षेत्रे . बंगदेशे पुरं वरम् । हेमाख्यं तत्र राजाभूत् हेमदत्तः सुधार्मिकः ||६३।। अन्वयार्थ - अथ = अब और. जम्बूद्वीपे = जम्बूद्वीप में, सुक्षेत्रे = आर्यक्षेत्र
में, बंगदेशे = बंगदेश में, हेमाख्यं = हेम नामक, वरं = श्रेष्ठ, पुरं = नगर, (आसीत् = था), तत्र = वहाँ, हेमदत्तः = हेमदत्त. (एक: = एक), सुधार्मिकः = धार्मिक, राजा = राजा, अभूत
- था। श्लोकार्थ - उपर्युक्त कथन के बाद कवि क्षेत्र की महिमा बताने के लिये
कहता है कि जम्बूद्वीप के आर्यक्षेत्र में बंगदेश के हेमपुर नामक
नगर का राजा हेमदत्त था, जो धर्मात्मा था। तद्राज्ञी जयसेनाख्या पुत्रहीना 7 सा बभौ ।
महापरात्मिकाप्येषा पुत्रवाञ्छासमाकुला ।।६४।। अन्वयार्थ - तद्रासी = उसकी रानी, जयसेनाख्या = जयसेना नाम वाली
(आसीत् = थी). पुत्रहीना = पुत्रविहीन, सा = वह रानी, न = नहीं, बभौ = सुशोभित हुई। एषा = यह रानी, महापरात्मिका - बहुत परोपकारिणी अथवा स्व पर भेद विज्ञान को समझने याली परम विदुषी होकर, अपि = भी, पुत्रवाञ्छासमाकुला =
पुत्र पाने की उत्कट इच्छा से व्याकुल, (आसीत् = थी)। श्लोकार्थ • उस राजा की जयसेना नामक रानी थी जो पुत्र न होने से
दुःखी थी अतः सुशोभित नहीं थी, उदास रहती थी। यह बहुत ही परोपकार करने वाली अथवा आत्मा और पर को जानने वाली महान् विदुषी थी तथापि पुत्र पाने की इच्छा से व्याकुल थी।