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तृतीया
= धर्मात्मा राजा का, चतुरुत्तरचत्वारिंशल्लक्षपूर्वा = चवालीस
लाख पूर्व, भोगत: = भोग से, गता = व्यतीत हो गये। श्लोकार्थ - राज्य मिलने के बाद श्रीसंभवनाथ राजा हुये। राज्य का
संचालन करने में उन धर्मात्मा राजा के चवालीस लाख पूर्व
भोग भोगने से ही व्यतीत हो गये। एकदा सिंहपीठे स सुखासीनः प्रजेश्वरः ।
सातपातं वदति या वित्त व्यांचन्तयत् ।।३६ ।। - अन्ययार्थ - एकदा = एक दिन, सिंहपीठे = सिंहपीठ नामक सिंहासन पर,
सुखासीनः -- सुख से बैठे हुये, सः = उस, प्रजेश्वरः = राजा ने, तारापातं = तारे का टूटना, ददर्श = देखा, तदा = तब,
अग्रे = आगे, चित्ते = मन में, व्यचिन्त्यत् = विचार किया। श्लोकार्थ - एक दिन सिंहपीठ पर बैठे हुये उस राजा ने तारे का टूटना
देखा तो उसने अपने मन में आगे की चिन्ता की, अर्थात् आगे
के हित को ध्यान में रखकर ऐसा विचार किया। नश्वरश्चैष संसारः सारो न हदि चिन्तितः ।
अनुप्रेक्षाः द्वादशका भावयाभास मानसे ||४०|| अन्वयार्थ - एषः = यह, संसारः = संसार, नश्वरः = विनाशशील, (अस्ति
= है), च = और अत्र = इसमें, सारः = सार तत्त्व. न = नहीं, (अस्ति = है). (इति = इस प्रकार). हृदि = मन में, चिन्तितः = चिन्ता करता हुआ. (असौ = उस राजा ने), मानसे = मन में, द्वादशकाः = बारह, अनुप्रेक्षाः = अनुप्रेक्षायें – भावनायें,
भावयामास = भायीं। श्लोकार्थ - उस राजा ने विचार किया कि यह संसार नश्वर है और इसमें
कुछ भी सारभूत नहीं है तथा इस प्रकार सोचते हुये उसने
अपने मन में बारह भावनाओं को भाया। सदा लौकान्तिका देवाः प्राप्ताः भूपतिसन्निधौ । जगुस्ते त्यामृते देव विमर्शयति को भुयि ।।४।।